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मो.मा.
प्रकाश
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नकी सुश्रूषा आदि करें हैं, ते भी पापी हो हैं । पद्मपुराणविषे यह कथा है-जी श्रेष्ठी धर्मामा चारण मुनिनिकों भ्रमते भ्रष्ट जानि आहार न दिया, तो प्रत्यक्ष भ्रष्ट तिनकौं दानादिक देना कैसे संभवै । यहां कोऊ कहै, हमारे अंतरंगविर्षे श्रद्धान तो सत्य है, परन्तु बाह्य लज्जादिकरि शिष्टाचार करें हैं, सो फल तो अंतरंगका होगा ? ताका उत्तर। षट्पाहुइविषै लज्जादिकरि वंदनादिकका निषेध दिखाया था, सो पूर्वै ही कह्या था। बहुरि कोऊ जोरावरी मस्तक नमाय हाथ जुड़ावै, तब तो यह संभवै, जो हमारा अंतरंग न । था। अर आपही मानादिकतै नमस्कारादि कर, तहाँ अंतरंग कैसें न कहिए । जैसें कोई अंतरंगविषे तो मांसकों बुरा जानै अर राजादिकका भला मनावनेकौं मांस भक्षण करे, तो वाकों | बती कैसे मानिए । तैसें अन्तरंगविणे तो कुगुरुसेवनकों बुरा जाने अर तिनका वा लोकनिका || | भला मनावनेकों सेवन करें, ते श्रद्धानी कैसे कहिए । ताते बाह्यत्याग किए ही अन्तरंग त्याग ।। संभव है। तात जे श्रद्धानी जीव हैं, तिनकों काहप्रकारकरि भी कुगुरुनिको सुश्रूषाआदि क-M रनी योग्य नाहीं । याप्रकार कुगुरुसेवनका निषेध किया। यहां कोऊ कहै-काहू तत्त्वश्रद्धानीकों || कुगुरुसेवनतें मिथ्यात्व कैसैं भया । ताका उत्तर___ जैसे शीलवती स्त्री परपुरुषसहित भरिवत् रमणक्रिया सर्वथा करे नाही, तैसें तत्त्वश्रद्धानी पुरुष कुगुरुसहित सुगुरुवत् नमस्कारादिक्रिया सर्वथा करै नाहीं । काहेते, यह तो जीवा- २८५
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