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दितत्त्वनिका श्रद्धानी भया है। तहां रागांदिकौं निषिद्ध श्रद्धै है, वीतरागभाव श्रेष्ठ माने | है, ताते तिनकै वीतरागता पाईये । वैसे ही गुरुकों उत्तम जानि नमस्कारादि करे हैं । जिनकै | रागादिक पाइए, तिनको निषिद्ध जानि नमस्कारादि कदाचित् करे नाहीं। कोऊ कहै, जैसे |
राजादिकौं करे, तैसें इनकों भी करे है । ताका उत्तर___राजादिक धर्मपद्धतिविष नाहीं । गुरूका सेवन धर्मपद्धतिविष है। सो राजादिकका | सेवन तो लोभादिकते हो है । तहां चारित्रमोहहीका उदय संभवै है । अर गुरुनिकी जायगा || कुगुरुनिकों सेए । सत्वश्रद्धानके कारण गुरू थे, तिनतें प्रतिकूली भया। सो लज्जादिकते। | जाने कारणविष विपरीतिता उपजाई, ताकै कार्यभूत तत्वश्रद्धानविषै दृढ़ता कैसे संभवै । ताते तहां दर्शनमोहका उदय संभवै है । ऐसें कुगुरुनिका निरूपण किया। अब कुधर्मका निरूपण कीजिए है
जहां हिंसादिकाय उपजे वा विषयकषायनिकी वृद्धि होय, तहां धर्म मानिए, सो कुधर्म जानना । तहां यज्ञादिकक्रियानिविणे महा हिंसादिक उपजावें, बड़े जीवनिका घात करें।
भर तहां इन्द्रियनिके विषय पोणे । तिन जीवनिविणे दुष्टबुद्धि करि रौद्रध्यानी होय तीव्रलोभते । । औरनिका चुराकर अपना कोई प्रयोजन साध्या चाहै, ऐसा कार्यकरि तहां धर्ममानें, सो कुधर्म है । बहुरि तीर्थनिविणे चा अन्यत्र स्नानादिकार्य करें, तहां बड़े छोटे घने जीवनिकी ।
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