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| हिंसा होय, शरीरकों चैन उपजे, तातै विषयपोषण होय, ताते कामादक बधे, कुतूहलादिकप्रकाश
रि तहां कषायभाव वधावै, बहुरि तहां धर्म मानै सो कुधर्म है । बहुरि संक्रांति, ग्रहण, व्यतीपासादिकविणे दान दे, वा खोटा ग्रहादिककै अर्थि दान दे, बहुरि पात्र जानि लोभीपुरुष|निकों दान दे, बहुरि दानविषे सुवर्ण हस्ती घोड़ा तिलआदि वस्तुनिकों दे, सो संक्रान्ति आदि। पर्व धर्मरूप नाहों । ज्योतिषी संचारादिककरि संक्रांतियादि हो है। बहुरि दुष्टप्रहादिककै अर्थ || दिया, तहां भय लोभादिकका आधिक्य भया । तातै तहां दान देनेमें धर्म नाहीं। बहुरि । लोभीपुरुष देनेयोग्य पात्र नाहीं । जाते लोभी नाना असत्ययुक्ति करि ठिगे हैं। किछू भला
करते नाहीं । भला तो लब होय, जब याका दानका सहायकरि वह धर्म साधै । सो वह तो | उलटा पापरूप प्रवर्ते । पापका सहाईका. भला कैसे होय । सो ही रयणसार शास्त्र विषे । | कह्या है--
सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणां फलाण सोहं वा॥
लोहीणं दाणं जइ विमाणसोहा सवस्स जाणेह ॥१॥ सत्पुरुषनिकों दान देना, कल्पवृक्षनिके फलनिकी शोभा समान है अर सुखदायक है। बहुरि लोभीपुरुषनिकों दान देना जो होय, सो शब जो मस्या ताका विमाण जो चक्रडोल || २८७ । ताकी शोभासमान जानहु । शोभा तो होय, परन्तु धनीको परमदुखदायक हो है। ताते लो
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