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काश
मा. भीपुरुषनिकों दान देनेमें धर्म नाहीं । बहुरि द्रव्य तो ऐसा दीजिए, जाकरि वाकै धर्म वधै ।।
सुधर्ण हस्तीआदि दीजिए, तिनकरि हिंसादिक उपजे वा मान लोभादिक वधै। ताकरि महापाप होय । ऐसी वस्तुनिका देनेवालाको पुण्य कैसे होय । बहुरि विषयासक्त जीव रतिदानादिकविर्षे पुण्य ठहरावै हैं । सो प्रत्यक्ष कुशीलादि पाप जहां होय, तहां पुण्य कैसे होय । अर युक्ति मिलावनेकौं कहें, जो वह स्त्री सुख पावै है। तो स्त्री तो विषयसेवन किए सुख पावे ही पावै, शीलका उपदेश काहेकौं दिया। रतिसमयविना भी वाका मनोरथ अनुसार न
प्रवर्ते दुःख पावै । सो ऐसी असत् युक्ति बनाय विषयपोषनेका उपदेश देहैं। ऐसे ही दया-- । दान वा पात्रदानविना अन्य दान देय धर्म मानना सर्व कुधर्म है।
वहुरि व्रतादिककरिके तहां हिंसादिक वा विषयादिक बधावै है । सो ब्रताद्रिक तौ तिनका घटावनेके अर्थि कीजिए है । बहुरि जहां अन्नका तो त्याग करै अर कन्दमूलादिकनिका || भक्षण करे, तहां हिंसा विशेष भई-स्वादादिकविषय विशेष भए । बहुरि दिवसविषै तौ भोजन करें नाहीं, अर रात्रिविषे करें । सो प्रत्यक्ष दिवसभोजनतें रात्रिभोजनविणे हिंसा विशेष भासे, प्रमाद विशेष होय । बहुरि ब्रतादिकरि नाना श्रृंगार बनावें कुतूहल करें जुवामादिरूप प्रवते, इत्यादि पापक्रिया करें, बहुरि ब्रतादिकका फल लौकिक इष्ट की प्राप्ति अनिष्टका नाशकों चाहें, तहां कषायनिकी तीव्रता विशेष भई । ऐसें बतादिकरि धर्म माने हैं, सो कुधर्म है। २८८
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