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बारनवरण १२.१॥
उत्तमं जिनरूपी क, मध्यमं च मतं श्रुतौ। जघन्यं तत्व साधं च, अविरत सम्यक् दृष्टितं ॥ १९६ ॥ लिङ्ग त्रिविधि प्रोक्तं, चतुर्थलिक न उच्यते ।
जिनशासने प्रोक्तं च, सम्यग्दृष्टि विशेषतः ॥ १९७ ॥ अन्वयार्थ (मिनागमे) जिन आगममें (मिमं प्रोक) जिनेन्द्र भगवानके कहे गए (किंग प्रितम निंग) लिंग तीन (उत्तम मध्यम जपन्य च) उत्तम लिंग, मध्यम लिंग, व जघन्य लिंग (क्रियात्रेयण संयुतं) यह यथायोग्य त्रेपन क्रियासे संयुक्त होते हैं (उत्तम मिनरूपी च) उत्तम लिंग जिनेन्द्रका स्वरूप नग्न दिगंबर वस्त्रादि परिग्रह रहित है (मध्यमं च श्रुती मतं) मध्यम लिंग शास्त्रमें कहा हुआ श्रावकका लिंग है। (मपन्य तु) जघन्य लिंग (तत्व सार्ष) तत्वबोध सहित (अविरत सम्यग्दृष्टितं ) अविरत सम्यग्दृष्टिका लिंग है। (निविर्षि लिंग प्रोक्तं ) तीन प्रकार ही लिंग कहा गया है (चतुर्व किंग न उच्यते) चौथा लिंग नहीं कहा गया है(विशेषतः ) विशेष करके (निनशासने) जिन शासनमें (सम्यग्दृष्टि) सम्यग्दृष्टिको (प्रोक्तं च) कहा गया है।
विशेषार्थ-मोक्षमार्गमें रत्नत्रयके साधमकी अपेक्षा तीन श्रेणी है-एक महावती साधुकी दसरे श्रावककी तीसरे मत रहित सम्यक्पष्टीकी, चौथी श्रेणी नहीं है। इनमें सम्यग्दर्शनकी विशेषता इसलिये है कि इसके विना प्रावक व साधु सखा श्रावक व साधु नाम नहीं पाता है। अविरत
सम्यग्दर्शन चौथा गुणस्थान है, यहांसे स्वरूपाचरण चारित्र या स्वानुभव प्रारम्भ होजाता है। फिर * अप्रत्याख्यानावरण कषायके उपशमसे श्रावक पंचम गुणस्थानी होता है। इसकी दर्शन प्रतिमा
आदि ग्यारह श्रेणियां हैं। जितना जितना-प्रत्याख्यानाचरण कवायका क्षयोपशम अधिक २ बढ़ता ॐ जाता है उतना उतनाचारिक प्रतिमा रूपसे या श्रेणी रूपसे बहता चला जायगा । जय प्रत्याख्यानावरण कषायका भी उपशम होजाता है तब वह श्रावक साधु होजाता है, पूर्ण व्रती होजाता है
और सर्व परिग्रह रहित निग्रंथ होजाता है। यही उत्तम लिंग है, मध्यम श्रावकका है, जघन्य व्रत * रहित सम्पग्दर्शनका है। इनमें भी हरएकके भीतर तीन २ भेद उत्तम मध्यम जघन्यके भेदसे किये Vm
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