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________________ अन्वयार्थ (यत्र पात्रं शुद्ध च) जहां पात्र शुद्ध सम्यग्दृष्टी होता है (दात्र प्रमोद कारणं ) वह दाताप्रावका Inau रको प्रमोद उत्पन्न करनेका कारण होता है (पात्र दात्र शुद्धं च) जहां पात्र और दातार दोनों शुद्ध सम्यग्दृष्टी हो (मिनागमे दान उक्तं ) वही दान जिनागममें उचित कहा गया है। विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनका ऐसा महात्म्य है कि जिसके कारण मुखपर एक अपूर्व शांतिका झलकाव होता है। सम्यक्ती पात्रके दर्शन करते ही दाता शांत रस में पहुंच जाता है। सम्यक्ती पात्रके द्वारा कोई ऐसी क्रिया नहीं होती है जिससे दातारको कुछ भी कष्ट हो, वह पडाहीसंतोषी होता है। जो उद्दिष्ट आहारके त्यागी हैं वेतोरस नीरम जो मिला उसे लेकर अपने आत्म कार्य में लग जाते हैं। घेतो यहांतक सम्हाल रखते हैं कि उनके निमित्त कोई आरम्भ नहीं किया जावे । जो गृहस्थके Y. स्वकुटुम्बके लिये भोजन तरपार किया हो उसीमेंसे मुनिगण आहार लेते हैं। जिससे उनके निमि-Y त्तसे न तो हिंसा हो और न कुछ भी कष्ट हो । अन्य मध्यम या जघन्य पात्र भी बडे ही उत्साही व धर्मके प्रेमी होते हैं। किसी तरहका अभिमान नहीं रखते हैं। यदि कोई भक्तिपूर्वक निमंत्रण करे तो वे कभी मानसे जमका निषेध नहीं करते हैं। जैन आगममें उसहीको उत्तम दान कहा गया है जहां पात्र और दान दोनों योग्य हो। सम्यग्दृष्टी द्वारा सम्यग्दृष्टाको दान होजाना ही प्रशंसनीय दान है। जहां सम्यग्दृष्टी मोक्षगामी दातार हो और तीर्थकर सरीखे मोक्षगामी महात्मा पात्र हों वह दान महान है। राजा श्रेयांस द्वारा श्री रिषभदेव भगवानको दान होजाना व चन्दना सतीद्वारा श्री महावीर भगवानको दान होजाना ऐसे सुयोग्य दानके उदाहरण है। सम्यग्दर्शनकी अपूर्व सुगन्ध है। . श्लोक-मिथ्यादृष्टी च दानं च, पात्र न गृहिते पुनः। यदि पात्र गृहिते दानं, पात्रं अपात्र उच्यते ॥ २९॥ अन्वयार्थ-(मिथ्यादृष्टी च दानं च) मिथ्यादृष्टीके द्वारा दिये हुए दानको (पात्र न गृहिते पुनः) पात्र नहीं ग्रहण करते हैं (यदि पात्रदान गृहिते) यदि पात्रदानको ग्रहण करले तो (पात्रं अपात्र उच्यते ) वह पात्र अपात्र कहा जाता है। विशेषार्थ-यहां यह बताया है कि जो सम्यग्दृष्टी पात्र होते हैं वे श्रद्धावान भाई यान दातारके 2 .
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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