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परणवरण
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ही हाथसे भोजन लेते हैं। जो मिथ्यादृष्टी हैं, सचे देव, गुरू, शास्त्रके अडानी नहीं हैं. उनके सच्ची भक्ति सुपात्रोंसे नहीं होसती है। यदि कदाचित् वे किसी कारणवश पात्रोंको दान देनेके लिये तय्यार भी होजावें तो पात्र जो सम्पग्दृष्टी हैं वे उनको उपदेश देकर पहले सम्यग्दृष्टी अर्थात् व्यवहार अडान बना लेंगे तब उनको दातार मानके उनके यहां भोजन करेंगे । जो सच्चे देव, गुरु, शास्त्रके अडानी है वे ही शुद्ध भोजन तय्यार कर सके हैं, छना पानी व्यवहार कर सक्के हैं। शुद्ध अन्न, घी, दूधादि काममें लेंगे, जीवदया पूर्वक रसोई बनायेंगे। मिथ्याष्टीकी भोजनकी क्रिया जन शास्त्रोक्त नहीं होगी। इसलिये जो श्रद्धावान तीन प्रकार के पात्र हैं वे ऐसी अशुद्ध रसोईको स्वीकार नहीं कर सक्त। न तो वह वस्तु हो लेने योग्य है न दातार मिश्यादृष्टीकी भक्ति उस रत्नत्रय धर्म में है जिसके धारी वे पात्र हैं। भक्ति विना पात्रदान नहीं होता है। यदि कोई पात्र ऐसी अशुद्ध रसोईको मिथ्यादृष्टीके द्वारा दिये जाने पर लेलेके तौ वह स्वयं अपात्रहोजाता है अर्थात् स्वयं मिथ्या दृष्टी वनाचारके विरुद्ध होजाता है, ऐसा आवाोंने कहा है। जब तक अडान हो तबतक दातापना नहीं। जहां अन्डा बिगडी वहां पात्रपना नहीं। पात्रको वही दान लेना योग्य है जो उसको दातार द्वारा धर्मपात्र समझकर शुद्धताके साथ दिया जावे। जो पात्र इसके विरुड आहार करता है वह स्वयं अपात्र होजाता है।
श्लोक-मिथ्यादान विषं प्रोतं, घृतं दुग्ध विनाशए ।
नीचसंगेन पात्रं च, गुणं नाशन्ति यत्पुनः ॥ २९१॥ अन्वयार्थ-मिथ्यादान विषं प्रोक्तं) मिथ्यात्वीका दान विषरूप कहा गया है (घृतं दुग्ध विनाशए) जैसे विषके सपोगसे घी और दुबके गुण नष्ट होजाते है वैसे (नीवसंगन पात्रं च गुग नःशांति यत्तुनः) मिथ्यादृष्टीकी संगतितेपात्रके गुण भी नाश होजायगे।
विशेषार्थ-दान श्रद्धावानका ही गुणकारी है। जो अन्नादि ग्रहण किया जाता है उसमें दातारके भावोंका भी असर होजाता है। मिथ्यात्त भावसे मिला हुआ वह दान है। अतएप ऐसा दान ग्रहण करनेवाले पात्रकी बुद्धिको मलीन कर लेता है। जैसे विष के संयोगसे घी व दूध नष्ट होजाते हैं वैसे मिथ्यादानके संयोगसे पात्रके सम्यकादि गुण नष्ट होजाते हैं। यदि कोई पात्र न हो परन्तु
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