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________________ वारणतरण श्रावकाचारका प्रारम्भ । श्रावकाचार (संसार-शरीर-भोगका स्वरूप) श्लोक-संसारे भय दुःखाना, वैराग्यं येन चिंतये । अनृतं असत्यं जानते, असरनं दुःखभाजनं ॥१५॥ अन्वयार्थ-(भय दुःखानां) भय और दुःखोंसे भरे हुए (संसारे) संसारमें (येन ) उस मुमुक्षु द्वारा (वैराग्य ) वैराग्यभाव (चिंतये) चितवन किया जाता है ( अनृतं) यह संसार मिथ्या है (असत्य) असत्य है, ( असरनं ) अशरण है, ( दुःखभाजनं ) दुखोंका भाजन है। विशेषार्थ-जो कोई अपना हित करना चाहे उसको पहले यह विचारना चाहिये कि मेरी वर्तमान दशा कैसी है। यदि यह बुरी है तो इसको दूर करना ही चाहिये। वह स्वहित प्रेमी विचारता है कि मैं संसारी हूं। जिस संसारमें भ्रमण कर रहा हूँ वह सदा भय रूप है। हरएक शरीरमें रहते हुए मरणका भय व दुःखोंके आनेका भय, रोगी होनेका भय, सुखके माने हुए साधक स्त्री ४ पुत्रादि धन लक्ष्मीके छूट जानेका भय लगा रहता है। तथा यह संसार दुःखोंसे भरा हुआ है। शारीरिक व मानसिक अनेक दुःख ही दुःख हैं। चिंता व इच्छा व तृष्णाका दाह बढ़ा भारी दुःख है। अज्ञानी प्राणी जिन विषय भोगोंके द्वारा इस तृष्णाके दाहको मिटाना चाहता है उतना अधिक वह तृष्णाके दाहको बढ़ा लेता है। जन्म, जरा, मरण, शोक, क्लेश व क्रोधादि कषाय आदि द्वारा संसारमें सदा दुःख ही दुःख है। अनेक व्याधियोंके होनेपर यदि कोई रोग कुछ देरके लिये कम होजाता है उसको सुख मान लिया जाता है परंतु वह सुख नहीं है किंतु दुःख की कुछ कमी मात्र है। यह विषयसुख आगामी दुःख बढ़ानेका कारण है। कमेंकी पराधीनताका संसारमें बड़ा दुःख है। इसीलिये चाहा हुआ काम नहीं होता। होते हुए सुखोंमें बाधा आजाती है। इच्छित पदार्थ नहीं मिलते । वे सदा एकसे नहीं रहते, यह उनको एकता रखना चाहता है, तब बहुत क्लेशित होता है। स्त्री पुत्रादि जब इच्छानुकूल नहीं चलते हैं तब वज्रके प्रहारव दुःख होता है। नरक व
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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