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पारणतरण
स्वभावोंको रखनेवाला है। जिस पदार्थके जो जो यथार्थ स्वभाव हैं वे मालूम पड़ जाते हैं। मोक्ष- श्रावकाचार ॥१४॥ मार्गमें सहकारी आत्माका यथार्थ ज्ञान है। यह आत्मा सर्व अनात्मासे-पुद्गल धर्म अधर्म काल आका
शसे, रागादि कर्मजनित भावोंसे व अन्य आत्माओंसे भिन्न अपने ही निज शुद्ध स्वभावरूप है। यह स्वसंवेदन रूप ज्ञान मोक्षका उपाय है वह ज्ञान जिस जिनवाणीसे मिलता है उसको हमारा नमस्कार हो।
श्लोक-देवं श्रुतं गुरुं वन्दे, ज्ञानेन ज्ञानलंकृतं ।
वोच्छामि श्रावकाचारं, व्रतं सम्यग्दृष्टितं ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ (ज्ञानेन) आत्मज्ञानके द्वारा (ज्ञानलंकृतं ) जहां ज्ञानकी शोभा होरही है ऐसे ( देवं) सर्वज्ञदेवको (श्रतं ) उनकी जिनवाणीको (गुरु) उसके अनुसार चलनेवाले गुरुको (वंदे) नमस्कार ४ करता हूं। (व्रतं सम्यग्दृष्टितं ) बारह व्रत और सम्यग्दर्शन रूप (श्रावकाचारं ) श्रावकोंके आचारको
(बोच्छामि ) कहूंगा। V विशेषार्थ-ग्रंथकारने देव, शास्त्र, गुरुको वंदना करके अपनी गाढ़ श्रद्धा झलकाई है, उनको ॐ स्मरण करते हुए उनमें आत्मज्ञान की शोभा पर ही लक्ष्य दिया है। वास्तवमें तत्व खोजी अरहत* * सिद्धमें भी शुद्ध आत्माको देखता है, शास्त्रोंके भीतर भी शुद्ध आत्माका ही दर्शन करता है व
गुरु महाराजके भीतर भी शुद्ध आत्माको देखता है अथवा उनके द्वारा शुद्ध आत्माका बोध प्राप्त करता है। इस वंदनासे यह षात यताई है कि मैं सम्यक्दर्शन तथा ब्रत रूप जो श्रावकोंका-गृहस्थियोंका आचरण है, उसको व्याख्यान करते हुए वही कहूंगा जो देव, शास्त्र, गुरुके द्वारा प्रकाशित है व जिसको सुनकर व जिसको समझकर जिसपर आचरण करनेसे मुमुक्षु जीवको आत्म-ॐ ज्ञान सहित पञ्चम देशविरति गुणस्थानका लाभ होजावे-वह सचा जैनी श्रावक होजावे ।