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तारणतरण ॥ १३ ॥
जानने में आलस्य अनध्यवसाय है। तथा यह श्रुतज्ञान प्रवाहकी अपेक्षा नित्य है, सदा ही केवलज्ञानियोंके द्वारा प्रगट होता रहा है और विद्वान आचार्यों द्वारा शास्त्रों में गूंथा जारहा है। विदेह क्षेत्र में नित्य ही रहता है क्योंकि वहा सदा ही तीर्थंकरोंका अस्तित्व रहता है । केवलज्ञान यद्यपि एकाकी है तथापि उसमें अन्य चार मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय सम्यग्ज्ञानोंका विषय गर्भित है परंतु तीन कुमति आदि कुज्ञानोंका विषय नहीं है क्योंकि वहां केवलीकी आत्मा में क्षायिक सम्यक्त है, मिथ्यात्वका अंश मात्र भी नहीं है। जो जिनवाणी सर्वज्ञ मुखसे प्रगट है व गणधरादि द्वारा प्रकाशित होती रहती है वही प्रमाणभूत है ।
श्लोक – कुज्ञानं तिमिरं पूर्ण, अंजनं ज्ञानभेषजं ।
केवली दृष्ट स्वभावं च जिनसारस्वती नमः ॥
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अन्वयार्थ – ( कुज्ञानं ) मिथ्याज्ञान रूपी (तिमिरं ) अंधकार से ( पूर्व ) पूर्ण जो भाव है उसको मिटानेके लिये ( ज्ञानभेषजं ) ज्ञानरूपी औषधि ( अंभनं ) अंजनके समान है । ( केवल दृष्टं स्वभावं च ) केवली द्वारा देखे हुए स्वभावोंको प्रकाश करनेवाली ऐसी (विन सारस्वती ) जिनेश्वर की वाणी सर - स्वती देवीको (नमः) नमस्कार हो ।
विशेषाथ — जिनवाणी वहीं सच्ची है जो उन ही पदार्थोंको वैसा ही प्रकाश करे जैसा केवलज्ञानीने जाना है । यह वाणी ज्ञानकी स्थापना रूप है । शब्दों में ज्ञान भरा जाता है । यह श्रुतज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान उन व्यक्तियोंके लिये अंजनरूप औषधि है जिनके भीतर कुज्ञानका अंधेरा छाया हुआ है । जिनवाणीको ध्यान से पढ़नेसे, विचारने से, अनुभव करनेसे अज्ञान मिट जाता है, सम्पज्ञानका प्रकाश होजाता है। जैसे आंख में रोग हो, धुंधलापन हो जिससे पदार्थ ठीक न दिखता हो या औरका और दिखता हो तब चतुर वैद्य द्वारा डाला हुआ अंजन उस दोषको मेट देता है। तव पदार्थ ठीक २ जैसाका तैसा दिखलाई पड़ता है । इसी तरह अज्ञानियोंके हृदयमें जो संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रूप दोष है वह जिनवाणीके यथार्थ अभ्यास से मिट जाता है तब जो एकांतरूप पदार्थका ज्ञान था वह अनेकांतरूप पदार्थका ज्ञान होजाता है । हरएक पदार्थ अनेक
श्रावकाचार
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