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तारणतरण
विशेषार्थ-जिनवाणी वही ज्ञान है जो अहंत भगवानके भीतर शोभायमान है। लोकमें कम- श्रावकाचार
लके मध्य में सरस्वतीको विराजमान करते हैं यहां उसी अलंकारको लेकर यह कहा गया है कि ॥१२॥
अर्हतके हृदयरूपी कमलमें यह जिनवाणी विराजित है । ॐ ह्रीं श्रीं ये तीनों ही मंत्र पंच परमेष्टी, चौवीस तीर्थकर तथा केवलज्ञानादि लक्ष्मीके क्रमसे वाचक है जैसा पहले कहा है। इन तीनोंके भावोंको वह जिनवाणी भलेप्रकार दिखलाने वाली है। यह पाणी सार है क्योंकि सार तत्व जो आत्मा है उसको झलकाने वाली है। भगवत् द्वारा प्रकाशित ध्वनिको सुनकर गणधर देवादि उस
ध्वनिके भावको धारण करते हैं। उसीसे द्वादशांग रचना होती है। उसीका सार परंपरा जिन अ आगमसे आया हुआ अब तक आचार्यकी परम्परासे मिलता है। ऐसी सरस्वती या जिनवाणी ही जैन शास्त्र मानने योग्य है।
श्लोक-कुज्ञानं त्रि विनिर्मुक्तं, मिथ्या छाया न दृष्टते।
सर्वज्ञं मुखवाणी च, बुधप्रकाशं शास्वती ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ (कुज्ञानं त्रि) तीन अज्ञान कुमति, कुश्रुत, कुअवधिसे अथवा संशय, विमोह, विभ्रV मसे (विनिर्मुक्त) रहित है। (मिथ्या छाया) मिथ्यादर्शनकी छाया (न दृष्टते) जहां नहीं दिखलाई पड़ती।
है ( सर्वज्ञं मुखवाणी च) तथा वह वाणी सर्वज्ञके मुखसे प्रकट हुई है, (बुधप्रकाशं) व गणधर देवादि बुधजनोंके द्वारा प्रकाशित होती है (शास्वती) तथा नित्य प्रवाहरूप सदासे चली आरही है।
विशेषार्थ केवलज्ञान द्वारा जिन पदार्थोंको सर्वज्ञ भगवानने देखा है उनहीका प्रकाश उनकी दिव्य ध्वनिके द्वारा होता है। उसको सुनकर गणधर देव द्वादशांग रचना करते हैं उसीके अनुसार अन्य बुद्धिमान आचार्य और शास्त्र रचते हैं, इसतरह वह ज्ञान अवतक प्रकाशित होता रहा है।
जो सर्वज्ञका ज्ञान है उसमें कुमति, कुश्रुत व कुअवधि पना बिलकुल नहीं है क्योंकि तीनों ही * कुज्ञानोंमें मिथ्यात्वकी छापा पड़ती है। सर्वज्ञके ज्ञानमें मिथ्यादर्शनकी छाया नहीं दिखलाई पड़ती
है उसी तरह जिस ज्ञानको शास्त्रों में भरा जाता है वह श्रुतज्ञान भी सम्यग्ज्ञान है। उसमें भी मिथ्यात्वकी छाया नहीं है और न उसमें ज्ञानके तीन दोष हैं-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय । यह वस्तु ऐसी है कि नहीं है यह संशय है। वस्तुको कुछका कुछ निश्चय कर लेना विपर्यय है। वस्तुके
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