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ताको ही ध्यान कहते हैं। जहां आत्माका ज्ञान ज्ञानसे ही अलंकृत होता है। जहां आत्माका ज्ञान तारणतरण
श्रावकाचा ज्ञान चेतना रूप परिणमन करता है वहीं धर्म तथा शुक्लध्यान होता है। धर्मध्यानमें कुछ सरागता । ॥११॥
है। शुक्लध्यानमें ऐसी निर्मलता है कि साधुको कोई रागका विकल्प नहीं होता है। बुद्धिपूर्वक चंच.
लता भी नहीं है। प्रथम शुक्लध्यानमें जो योग, शब्द व ध्येय पदार्थकी पलटना होती है वह अबुद्धिॐ पूर्वक पूर्व अभ्याससे होजाती है। ध्याता मुनिका उपयोग तो शुद्ध आत्माकी परिणतिकी तरफ ही ५ रहता है। यद्यपि साधुका आहार विहारादि छठे गुणस्थानमें होता है इसलिये सराग भाव छठेमें है। सातवें अप्रमत्त गुणस्थानमें वीतराग भावकी मुख्यता है तथापि आठवेंके मुकाबलेमें वहां अल्प वीतरागता या कुछ सरागता है। दूसरे शुक्लध्यानमें चंचलता नहीं है। इसीसे केवलज्ञानका लाभ होता है । साधुके संसारका कारण आत व रौद्रध्यान नहीं होना चाहिये। शोक व दु:ख भावरूप आर्तध्यान है उसके चार भेद हैं-इष्ट वियोगसे, अनिष्टके संयोगस, किसी पीड़ासे, व भोगोंकी आगामी प्राप्तिकी चिन्तासे । यह संक्लेशभाव चार तरहका है। दुष्ट भावको रौद्रध्यान कहते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी व परिग्रहमें आनन्दित होना चार प्रकारका रौद्रध्यान है । साधुमें तीन प्रकारका मिथ्यात्व न होना चाहिये । जिससे बिलकुल मिथ्या श्रद्धा हो वह मिथ्यात्व है। जिससे मची झूठी मिली हुई अहा हो वह सम्यक् मिथ्यात्व है। जहां सम्यक्तमें मात्र दोष या अतीचार लगे वह सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व है । गुरु महाराज शुद्ध तत्त्वके अनुभव में ऐसे मगन रहते हैं मानो उन रूप ही होगए हैं।ऐसे धर्मके पात्र गुरु, इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि सर्व तीन लोकके बड़े२ पुरुषों द्वारा वन्दनीक हैं । श्रावकको उचित है किऐसे निग्रंथ गुरुकीभक्ति करें तथा उनसे सत्य उपदेशका लाभ करें।
श्लोक-सार सारस्वती दृष्टं, कमलासने संस्थितं ।
ॐ वं हियं श्रियं सुयं, ति अर्थ प्रति पूर्णितं ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ-(कमलासने) अईत भगवानके हृदय कमलरूपी आसनम ( संस्थितं ) भलेप्रकार विरा. ॐ जित (ॐ वं हियं श्रियं ) ॐ, ही, श्रीं (ति अर्थ ) इन तीन अर्थोंसे (प्रतिपूर्णितं ) परिपूर्ण (सुर्य) ऐसी ४
श्रुतज्ञान मई (सार सारस्वती) उत्तम सरस्वती या जिनवाणी (दृष्टं ) देखने योग्य है।