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तारणतरण
श्रावकाचार
॥१६॥
असत्य है।
पाप है, अवस्था है, जलासमय वैरी होजात
पशुव मानवगति तो तुःखरूप हैं ही। देवगतिमें मानसिक दःख अधिक है। ईर्षाभाव व वियोग- भाव कृत शोक है। इसको असत्य स्वप्न सम देखना चाहिये जैसे सोते स्वप्न देखा जाता है, जागने पर कुछ नहीं रहता वैसे किसी शरीरमें रहते हुए जिन चेतन व अचेतन पदार्थों का सम्बन्ध होता है उनके वियोग होने पर व अपना मरण मानेपर उनका संयोग स्वमके समान होजाता है। यह संसार असत्य इसलिये है कि जिन को अपनाया जाता है वे सब पर हैं। स्वार्थवश परस्पर कुछ स्नेह करते हैं। यदि अपने स्वार्थमें हानि आती है तो उसी समय वैरी होजाते हैं। संसारमें जो कुछ दिखलाई पड़ता है वह सब पर्याय है, अवस्था है, जो अवश्य बदलने वाली है। उसको स्थिर मानना यही असत्य है। धन, जीतव्य, कुटुम्ब, राज्य, रूप, बल, यौवन, आदि सदा बना रहेगा, यह बुद्धि बिलकुल मिथ्या है। सूर्य की धूप व छायाको एक स्थल पर थिर मानना मात्र भ्रम है असत् है। फिर यह ससार अशरण है । मरणसे कोई बचा नहीं सका। तीव्र कर्मके उदयसे कोई रक्षित नहीं से कर सकता। अकेला ही मरना पड़ता है, अकेला ही रोगी, धनहीन व कुटुम्बहीन होना पड़ता है। इसतरह संसारका स्वरूप विचार कर इससे वैराग्य चितवन करना चाहिये तब ही श्रावक धर्मके साधनमें प्रीति होसकेगी। श्री कुन्दकुन्द आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैं
जीवितं विद्युतातुल्यं संयोगाः स्वमसन्निभाः । सन्ध्यारागसमः स्नेहः शरीरं तृणबिन्दुवत् ॥ १५० ।
शकचापसमा भोगाः सम्पदो जलदोयमाः। यौवनं जलरेखेव सर्वमेत दशाश्वतम् ॥ ११ ॥ __ भावार्थ-यह जीवन विजलीके समान क्षणभंगुर है, स्त्री पूत्रादिका संयोग स्वप्नके समान है, मित्रादिसे स्नेह सन्ध्या समयकी लालीके समान नाशवंत है। शरीर तृगपर रक्खी हुई जलकी बुंदके समान पतन होनेवाला है, कामभोग इन्द्रधनुष समान क्षणिक है। सम्हाएं मेवोंके समान विला जानेवाली है। युवानी जलकी रेखा समान मिट जाती है। यह सर्व पदार्थ अनित्य हैं। ऐसे अनित्य संमार-चरित्रमें लुभाजाना मूर्खता है, यही मूर्खता महान दुःखोंका हेतु है । इसलिये बुद्धिवानको इनसे वैराग्यका चिन्तवन करना चाहिये।
श्लोक-असद शाश्वतं दृष्टं, संसारं दुःख'भीरुदं ।
शरीरं अनित्यं दृष्ट, अशुच्यमेध्यपूरितं ॥ १६ ॥
४॥१६॥