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श्रावकाचार
__ अन्वयार्थ (संसारं ) इस चतुर्गति भ्रमण रूप संसारको ( असत् ) असत्य-अयथार्थ कल्पित तारणतरण (अशाश्वतं ) क्षणभंगुर-नाशवंत व ( दुःखमीरुदं ) दुःख तथा भयको देनेवाला (डटं ) देखना चाहिये ।
शरीरंस शरीरको (अनित्यं न रहनवाला-क्षणिक, (अमेध्यपुरित) मल मूत्रादिका भरा हुआ (मशुचि) अपवित्र दृष्टं ) देखना चाहिये।
विशेषार्थ-जो अपना सच्चा हित चाहें उन ज्ञानी जीवोंको विचारना चाहिये कि यह संसार जैसे असत्य, अनित्य व दुख और नयका ठिकाना है वैसे यह शरीर भी अनित्य और अपवित्र महादिका भरा हुआ है। संसार में वास आकुलता देनेवाला है, निरन्तर क्लेशित व भयवान रख. नेवाला है तथा यह मानवका शरीर जिसमें यह मानव रहकर जीवनके दिन पूर्ण करता है, बिलकुल अनित्य है, आयुकर्मके आधीन है, भायुकर्मके खिर जानेसे छूट जायगा तथा पापके उदयसे रोगी व निर्बल होजाता है तथा दिनपर दिन पुराना पड़ता है, इसमें बुढापा आजाता है । अकाल मृत्युके कारण मिलनेपर शीघ्र ही छूट जाता है तथा यह अपवित्र भी है। माताके रुधिर व पिताके वीर्यसे इसकी उत्पत्ति हुई है तथा यह दो आंख, दो नाक छिद्र, मुँह, दो कान व दो मध्यके उपंग इन नव दारोंसे निरन्तर मल ही वहाता है। इसके करोड़ों रोओंसे भीमल ही निकलता है; भीतर हड़ी, चरबी, रुधिर, मांस, कीड़े आदिसे व मल मूत्रसे भरा हुआ है। यदि बाहरकी खालका ऊपरका भाग निकाल डाला जावे, तो यह शरीर ऐसा घिनावना होजायगा कि आप ही अपने तनको न देख * सकेगा तथा उसे काकादि व मक्खी आदि नोच २ कर खालेंगे। ऐसे नाशवत, गलनशील तथा
महा अपवित्र शरीरमें राग करके आत्माका अहित न करना चाहिये। यह शरीर फिर न प्राप्त हो ऐसी मुक्तिका यत्न करना चाहिये । सारसमुच्चय में कहा है:
सर्वाशुचिमयं काये नश्वरे व्याधिपीड़िते । को हि विद्वान् रतिं गच्छेद्यस्यास्ति श्रुतसङ्गमः ॥ १५३ ॥
भावार्थ-यह शरीर पूर्णपने अपवित्र है, नश्वर है-रोग पीडित है, जो शास्त्रज्ञ है वह विद्वान ॐ ऐसे शरीरमें किस तरह स्नेह करेगा ?
श्लोक-भोगं दुःखं अतीदुष्टं, अनर्थ अथलोपितं ।
संसारे स्रवते जीवः, दारुणं दुःखभाजनं ॥ १७ ॥