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तारणतरण अन्वयार्थ ( भोग) पांचों इन्द्रियोंके भोग ( दुःखं ) आकुलता रूप दुःखहीके कारण हैं, (अतीदुष्ट)
श्रावकाचार १८॥ अती दुष्ट स्वभाववाले हैं । ( अनर्थ ) जीवका बुरा करनेवाले हैं ( अर्थलोषितं ) आत्माके सच्चे कार्यको
लोप करनेवाले हैं। इन्हीं के कारण (संसारे) चार गतिरूप संसारमें (जीवः ) यह जीव (दारुणं) भयानक ( दुःखभाजनं ) दुःखोंका पात्र होकर ( सवते ) भ्रमण किया करता है।
भावार्थ-पांचों इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्त बुद्धि अज्ञानी जीवोंके होती है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि इन भोगोंके कारण प्राणीको आकुलतामई दुःख ही होता है। उनकी प्राप्तिके लिये दुःख, प्राप्त होने पर भोगनेकी तृष्णारूप दुःख, भोगकर तृष्णा बढ़ानेका दुःख, भोग्य वस्तुओंके छुट जाने पर उनके वियोगका दुःख, इसतरह ये भोग रोगके समान दुःखरूप ही हैं, तथा ये अति दुष्ट
स्वभावधारी हैं, इन भोगांसे अधिक राग करते हैं वे भोगोंके लिये अन्याय कार्य करके-अन्यायसे * धनादि सामग्री एकत्र करके महान पाप कर्म बांधते हैं। पापके फलसे घोर दुःख उठाते हैं, कभी २४
अन्यायका फल राज्यदंडादि यहां भी पालेते हैं। जिससे प्रेम करो वही दुःखमें डाले यही दुष्टकी दुष्टता है। ये भोग तृप्ति तो देते नहीं, उल्टी तृष्णाकी दाह बढ़ाकर जीवको महान अनर्थ करते हैं तथा जो इनके मोहमें अंधा होजाता है वह अपने आत्माके कार्यको लोप कर देता है । वह कभी धर्म में दिल नहीं लगाता है । उसे आत्माकी बात भी नहीं सुहाती है। वह मोक्षमार्गका साधन न करके मानव जन्मको विफल खोता है। इन भोगोंकी आसक्तिसे तीन कर्म बांधकर जीव निगोद, नर्क व एकेन्द्रियादि तिर्यच पर्यायों में उत्पन्न होकर अति भयानक चिन्तवनमें न आवें ऐसे कष्टोंको भोगता है। सारसमुच्चयमें कहते हैं
वरं हालाहले भुक्तं विषं तद्भवनाशनं । न तु भोगविषं भुक्तमनन्तभवदुःखदं ॥ ६॥
इन्द्रियप्रभवं सख्यं सुखाभासं न तत्सुखं । तच्च कर्म विवन्धाय दुःखदानेकपण्डितम् ॥ ७७ ॥ भावार्थ-हालाहल विष खालेना अच्छा है, उससे इसी जन्मका नाश होगा,किन्तु इन्द्रियभोगोंकी आसक्तिरूप विषका सेवन ठीक नहीं, क्योंकि इससे अनन्त भवों में दुःख उठाना पड़ता है इन्द्रियोंके भोग द्वारा होनेवाला सुख सुखाभास है, सुखसा दिखता है वह सच्चा सुख नहीं है उससे तो ऐसा कर्मवध होता है जोमहान दुखरूप कलता है,ऐसा विचारकर ज्ञानीको भोगोंसे वैराग्य रखना चाहिये। ॥