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श्रावकाचार
बिलकुल सार रहित मचि ४
शान्ति नहीं मा
वारणतरण
संसारका कारण। ॥१९॥
श्लोक-अनादी भ्रमते जीवः, संसारे सावर्जिते ।
मिथ्यात्रितय संपूर्ण, सम्यक्तं शुद्धलोपनं ॥१८॥ अन्वयार्थ (सारवर्जिते ) सार रहित असार (संसारे) संसारमें (अनादी ) अनादि कालसे (जीवः ) यह जीव (सम्यक्तं शुद्धलोपन) शुद्ध सम्यग्दर्शनको लोप करनेवाले ( मिथ्यात्रितय संपूर्ण) तीन प्रकार मिथ्यात्वसे भरा हुआ (भ्रमते) भ्रमण करता रहता है।
विशेषार्थ-ऊपर दिखाया है उसतरह यह संसार जो दुःखरूप है जिसमें क्षणिक व अशाच शरीर प्राप्त होता है व जिसको इन्द्रियोंके भोग दुःखके कारण हैं, बिलकुल सार रहित है। अर्थात् इसमें रमण करनेसे कोई स्थिर सुख व शान्ति नहीं प्रा होती है। जैसे केलेके खम्भेको छीलनेसे इ. पत्ताही पत्ता मिलता है-सार अर्थात् गूदा नहीं मिलता है। चाहे कितनी भी गूदेके पानेकी
माशा की जावे। उसी तरह इस संसारमें सर्वत्र आकुलता व क्लेश ही मिलता है, कहीं भी सुख शांति नहीं मिलती, चाहे कितनी भी सुख शांति पानेकी आशा की जावे। इस असार संसारमें अनादि काल यह जीव मिथ्यात्वके उदयसे भ्रमण कर रहा है। मिथ्यात्व कर्म सम्यक्तका विरोधी है। शुद्ध आत्मप्रतीति रूप सम्यग्यदर्शनको मिथ्यात्वने छिपा रक्खा है। इस मिथ्यात्व रूपी दर्शनमोहके नशेमें यह प्राणी भूला हुआ सच्चे सुखको नहीं पहचान सक्ता, न अपने आत्माके असली स्वरूपको जानता है। भ्रमसे त्यागने योग्य संसारको ग्रहण करने योग्य मानता रहता है, विषयकी लालसासे दारुण कष्ट पाते हुए पड़ा रहता है। अनादिकालीन जीवके साथ तो एक मिथ्यात्वका ही संसर्ग है। परंतु जब किसी जीवको एक दफे उपशम सम्यग्दर्शन होजावे और फिर वह छूट जावे तब उसकी सत्तामें तीन प्रकारका मिथ्यात्व या दर्शनमोह हो जाता है-मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व व सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व, क्योंकि वे तीनों ही शुद्ध सम्यक्त या क्षायिक सम्यक्तके घातक है इसलिये ग्रंथकर्ताने सामान्यसे कह दिया है कि इन तीन शत्रुओंके कारण यह जीव सम्यक्तका प्रकाशन करके भ्रमण करता रहता है।
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पत्ता मिलता है-सा
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