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वारणतरण
॥ २० ॥
श्लोक – मिथ्यादेवं गुरुं धर्मं, मिथ्या माया विमोहितं । अनृतमचेतरागं च, संसारे भ्रमणं सदा ॥ १९ ॥
अन्वयार्थ – (मिथ्यादेवं गुरुं धर्मं ) मिथ्या देव, मिथ्या गुरु, मिथ्या धर्म, ( मिथ्या ) मिथ्यात्व भाव व (माया मायाचार इन दोनोंसे ( विमोहितं) अचेतपना, (अनृतं ) मिथ्या वचन ( अचेतरागं च ) और अचेत अर्थात् जो चैतन्य नहीं है अनात्मा है उसमें रागभाव इनके कारण (सदा) अनादि अनंतकाल तक (संसारे ) संसारमें (भ्रमण) जीवोंका भ्रमण हुआ करता है ।
विशेषार्थ – यहां बताया है कि इस संसार में जीवों के भ्रमण होने व कष्ट उठानेका क्या क्या मूल कारण है । धर्म में प्रेरक सचे देव, गुरु, धर्म हैं वैसे ही अधर्ममें प्रेरक मिथ्या दंव, गुरु, धर्म हैं । रागी, द्वेषी, संसार कार्यों में आसक, जिनमें न सर्वज्ञपना है न वीतरागता है, वे सब ही मिथ्या देव हैं, विषय कषायों की पुष्टि करनेवाले व अपनेको महत मानके पूजवानेवाले, भक्तोंके मन प्रसन्न रखनेवाले, आत्मज्ञान शून्य, आरम्भ परिग्रह में लीन सर्व ही मिथ्या गुरु । वीतराग विज्ञान या आत्मज्ञान और वैराग्यसे विरुद्ध रागद्वेष व हिंसा पोषक श्रद्धान ज्ञान आचरण सब मिथ्या धर्म है। इनकी श्रद्धा व भक्ति मोक्षमार्ग से दूर रखती है, इसी तरह अनादिसे चला आया हुआ अग्रहीत मिथ्या भाव कि मैं पशु हूं, मनुष्य ह, देव हूँ, नारको हूं, इत्यादि अहंकार भाव तथा मेरा तन है, धन है, मेरी स्त्री है, मेरे पुत्र हैं, मेरा राज्य है इत्यादि ममकार भाव संसार में फंसानेवाले हैं । मायाचार भी जीवको अचेत रखता है । विषयभोगकी तृष्णामें फंसा हुआ जैसे मकडी जंतुओंको फंसानेके लिये जाल बनाता है इसी तरह रात दिन दूसरोंको ठगनेके लिये संसारी प्राणी मायाचार करते रहते हैं । माया उनकी प्रकृतिखी होगई है। मिथ्यात्वभाव व मायाचारने परिणामोंको मृढ़ व मोही बना रक्खा है । अपना इष्ट प्रयोजन सिद्ध करनेको मिथ्यावचनों का कहना व मिथ्या उपदेश देना, अपनेको व दूसरोंको गुमराह कराने वाला है। आत्माके शुद्ध स्वरूपके सिवाय जितना भी अचेत भाव या अनात्मभाव है अर्थात् अशुद्ध आत्मपरिणति, लोभ व मानकी पुष्टि कामभाव, व्यवहार धर्म जैसे पूजा पाठ, जप, तप, गृही या साधुका धर्म इत्यादिमें राग अचेतराग है । आत्माके शुद्ध प्रेमसे बाहर है। ये सब कारण इस जीवको चार गति प संसार में भ्रमण करानेवाल हैं।
श्रावकाचार
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