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मो.मा. प्रकाश
సంహారం చెందిందకందంబరందం నిరంతరం
जीवादिके भेद कैसे न जाने । अर अन्यमतका लवलेश भी अभिप्रायमें नाहीं ताकै अरहंतवचमकी कैसे प्रतीति नाहीं भई । तातै वाकै ऐसा श्रद्धान तौ होय, परन्तु सम्यक्त्व न भया । बहुरि नारकी भोगभूमियां तिर्यंचआदिकै ऐसा श्रद्धानहोनेका निमित्त नाहीं अर तिनकै बहुतकालपर्यंत सम्यक्त्व रहे है । ताते वाकै ऐसा श्रद्धान नाहीं हो है, तो भी सम्यक्त्व भया। सातै सम्यश्रद्धानका यह स्वरूप नाहीं । सांचा खरूप है, सो आगें वर्णन करेंगे, सो जानना । बहुरि जो उनके शास्त्रनिका अभ्यास करना, ताकौं सम्यग्ज्ञान कहै हैं । सो द्रव्यलिंगी मुनिकै शास्त्राभ्यास होते भी मिथ्याज्ञान कह्या। असंयत सम्यग्दृष्टीकै विषयादिरूप जानना ताकौं सम्य| ज्ञान कह्या। ताते यह स्वरूप नाही, सांचा स्वरूप आण कहेंगे सो जानना। बहुरि उनकरि निरूपित अणुव्रत महाव्रतादिरूप श्रावक यतीका धर्म धारनेकरि सम्यक्चारित्र भया मानै । सो प्रथम तौ व्रतादिका स्वरूप अन्यथा कहैं, सो किछु पूर्वं गुरुवर्णनविषै कह्या है । बहुरि द्रव्यलिगीकै महाव्रत होते भी सम्यक्चारित्र न हो है। अर उनका मतके अनुसारि गृहस्थादिककै महाव्रतआदि बिना अंगीकार किए भी सम्यक्चारित्र हो है, तातै यह स्वरूप नाहीं। सांचाखरूप अन्य है, सो आगे कहेंगे। यहां वह कहै हैं-द्रव्यलिंगीकै अंतरंगविर्षे पूर्वोक्त श्रद्धानादिक भए, सो वाह्य ही भए, ताते सम्यक्त्वादि न भए। ताका उत्तर-जो अंतरंग नाहीं अर बाह्य धारै, सो तौ कपटकरि धारै । सो वाकै कपट होय, तो ग्रैवेयिक कैसे जाय, नरकादि.