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मो०मा०
प्रकाश
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नीचा करे हैं, सो यामैं धर्मकी हीनता हो है । इत्यादि अनेकप्रकारकरि मुनिधर्मविषै याचनाआदि नहीं संभव है । सो ऐसी असंभवती क्रियाके धारक साधु गुरु कहैं हैं । तातैं गुरुका स्वरूप अन्यथा कहै हैं । बहुरि धर्मका स्वरूप अन्यथा कहैं हैं । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इनकी एकता मोक्षमार्ग है, सो ही धर्म है सो इनिका स्वरूप अन्यथा प्ररूपै हैं । सो ही कहिए है
तत्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है, ताकी तौ प्रधानता नाहीं । आप जैसें अरहंत देव साधु गुरु दया धर्मकों निरूपै है, तिनका श्रद्धानकों सम्यग्दर्शन कहैं हैं । सो प्रथम तौ अरहंतादिकका स्वरूप अन्यथा कहैं । बहुरि इतने ही श्रद्धानतै तत्त्वश्रद्धान भए बिना सम्यक्त्व कैसें होय, तातै मिथ्या कहैं हैं । बहुरि तत्त्वनिकाश्रद्धानकों सम्यक्त्व कहैं हैं । प्रयोजनलिए तत्त्वनिको श्रद्धान नाहीं कहैं हैं । गुणस्थान मार्गणादिरूप जीवका, अणुस्कंधादिरूप जीवका, पुण्यपापके स्थाननिका, अविरतिआदि आश्रवनिका, व्रतादिरूप संवरका, तपश्चरणादिरूप निर्जराका, सिद्ध होनेके लिंगादिके भेदनिकरि मोक्षका स्वरूप जैसें उनके शास्त्रविषै कया है, तैसें सीख लीजिए । र केवलीका बचन प्रमाण है, ऐसें तत्त्वार्थश्रद्धानकरि सम्यक्त्व भया माने हैं । सो हम पूछें हैं, वेथिक जानेवाला द्रव्यलिंगी मुनिकै ऐसा श्रद्वान हो है कि नाहीं । जो हो है, तों वाक मिथ्यादृष्टी काहेकौं कहौ । अर न हो है, तो वानें तो जैनलिंग धर्मबुद्धिकर धारया है, ताकै देवादिकी प्रतीति कैसें नाहीं भई । प्रर वाकै बहुत शास्त्राभ्याप्त है, सो वान
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