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________________ श्रावकाचार वारणतरण प्रेमभावसे देखता है जिस तरह गाय अपने वत्सको देखती है-प्रेमालु होकर उनके कष्टोमें। होता है, वात्सल्य अंग पालता है। (4) अप्रभावना-धर्मकी प्रभावना न करना-सम्यक्ती सदा ही धर्मकी उन्नति चाहता है। जिस तरह बने अज्ञानको मिटाकर जैन शासनका महात्म्य प्रकाशित करता है, प्रभावना अंगको पालता है। इस तरह तीन मूढता, छ: अनायतन, आठ मद, आठ शंकादि दोष इन २५ दोषोंके स्वरूपको भले प्रकार जानता है तथा समझता हैकि इनके सेवनसे ऐसा पाप कर्म बंध होगा जिससे भयानक दुःख भोगना पड़ेगा। निर्मल सम्यक्त इस लोक व परलोकमें सुखी रखनेवाला है। 000000000 मिथ्यात्वके त्यागका उपाय। श्लोक-मिथ्यामतिरतो येन, दोषं अनंतानंत यं । शुद्ध दृष्टिं न जानंतः, सेवते दुःख दारुणं ॥३०॥ अन्वयार्थ-मिथ्यामतिरतः) जो मिथ्यात्व भावमें व मिथ्या ज्ञानमें लवलीन है वह (येन ) इस मिथ्या मतिके कारण (अनंतानंत यं दोषं) अनंतानंत दोषका भाजन है। (शुद्ध दृष्टिं) शुद्ध आत्महष्टिको व सम्यग्दर्शनको (न जानंतः) न जानता हुआ (दारुणं दुःख) भयानक दुःखोंको (सेवते) भोगता है। विशेषार्थ-यहां यह बताया है कि जगतमें जितने भी दोष हैं उन सबसे बड़ा दोष मिथ्या* त्वका है, इसके बराबर कोई पाप नहीं है । मिथ्यात्वी जीव अनगिनती दोषोंका पात्र बन जाता है, व अनंत दोषरूप भावोंको किया करता है। इसे अपने शुद्ध आत्मीक भावकी श्रद्धा नहीं होती है। यह अपनेको रागी, देषी, मोही जाना करता है व कर्मजनित भावों में लीन होकर महान घोर कर्मका बंध करता है, नरक निगोदका पात्र होता है, दीन दुखी पशु व मानव पैदा होता है व नीच देव होजाता है। मिथ्यात्व इतना बड़ा दोष है कि इसके साथ में स्वर्गमें रहना भी बुरा है। सारसमुच्चयमें कहते हैं
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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