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तारण तरण
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बरं नरकवासोपि सम्यक्त्वेन समायुक्तः । न तु सम्यक्तहनिस्य निवासो दिवि राजते ॥ ३९ ॥
भावार्थ- सम्यग्दर्शन सहित नरकमें रहना भी ठीक है किन्तु सम्पक्त विना मिथ्यात्व सहित स्वर्ग में रहना भी ठीक नहीं है । और भी लिखा है
मिथ्यात्वं परमं बीजं संसारस्य दुरात्मनः । तस्मात्तदेव भोक्तव्यं मोक्षसौख्यं भिक्षुणा ॥ १२ ॥ भावार्थ - इस भयानक दुष्ट संसारका सबसे बड़ा बीज मिथ्यात्व है इसलिये जो मोक्षके सुखकी इच्छा रखता हो उसे उचित है कि इसका त्याग करदे ।
श्लोक - वैराग्ये भावनां कृत्वा, मिथ्या त्यक्तं त्रिभेदयं ।
कषायं त्यक्त चत्वारि, प्राप्यते शुद्ध दृष्टितं ॥ ३१ ॥ मिथ्या सम्यक् मिथ्यात्वं, सम्यक्प्रकृतिर्मिथ्ययं ।
कषायं चत्वनंतानं त्यक्तते शुद्धदृष्टितं ॥ ३२ ॥
अन्वयार्थ – (वैराग्ये ) संसार शरीर भोगों से वैराग्यकी (भावनां) भावनाको (कृत्वा) करते हुए (त्रिभेदयं ) तीन भेदरूप ( मिथ्या ) मिथ्यात्व ( त्यक्तं ) छोडना चाहिये तथा ( चत्वारि ) चार (कषायं ) कक्षायको (त्यक्त ) तजना चाहिये । तव (शुद्ध दृष्टितं ) शुद्ध दृष्टिको या सम्यग्दर्शनको ( प्राप्यते ) प्राप्त किया जा सकेगा । ( मिथ्या ) मिथ्यात्व ( सम्यक् मिथ्यात्वं ) सम्यक मिथ्यात्व ( सम्यक्प्रकृति मिथ्ययं ) सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व । ये तीन प्रकारका मिथ्यात्व (अनंतानं) अनंतानुबन्धी (चतु ) चार ( कषायं ) कबाय ( त्यक्तते) इन सातोंको त्याग कर देने पर ( शुद्ध दृष्टितं ) शुद्ध दृष्टि या सम्यग्दर्शन होता है ।
विशेषार्थ—इन दो श्लोकोंमें सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका उपाय बताया गया है । सम्यग्दर्शन आत्माका एक विशेष गुण है । उसकी प्रगटतासे आत्माको अपने असली शुद्ध स्वरूपका सच्चा ज्ञान श्रद्धान व उसके अनुभव करनेकी या ध्यान करने की शक्ति पैदा होजाती है। जैसे तेलीको तिलों में तेल, धान्य में कृषकको चावल, खानसे निकले हुए माणकके पत्थर में जौहरीको माणिक रत्न, सोने चांदी के मिले हुए आभूषणमें सर्राफको सोना, दूध पानीके मिश्रणमें हँसको दूध, मटीले
श्रावकाचार
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