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श्रावकाचार
वारणतरण
५-अगुप्त भय-मेरा माल कोई चोरी लेजायगा तो क्या करूंगा ऐसा भय । ६-मरण भय-मेरा मरण न होने पावे ऐसा भय । ७-अकस्मात् भय-कोई अकस्मात् आपत्ति मेरेपर न आजाये ऐसा भय ।
सम्यक्ती वीर सिपाहीके समान इस संसारमें निर्भय रहता है। रोगादिसे बचनेका यथार्थ उपाय तो करता है जैसे सिपाही युरमें अपनेको बचानेका उपाय रखता है परन्तु सिपाही भयवान व कायर नहीं होता है इसी तरह सम्यक्ती अपना भाष साहस पूर्ण रखता है। रोग मरण द्रव्य हरणादि आपत्तिको कर्मजनित फल जानकर संतोष रखता है। इस तरह निःशंकित अंग पालता है।
(२) कांक्षा-भोगोंकी इच्छा-इद्रिय भोगोंको अधिर व अतृप्तिकारी जानकर उनकी इच्छा नहीं रखता है न उनमें सुख पानेकी अबा रखता है । आत्मीक सुखको सुख जानता है। इस तरह निःकांक्षित अंग पालता है।
(१) विचिकित्सा-घृणा-सम्यक्ती रोगी शोकी, क्षुधातुर किसी भी मुनि, श्रावक व अन्य प्राणीको देखकर उनसे घृणा नहीं करता है किंतु दया भाव लाकर उनकी सेवा करता है । मल* मूत्रादिका भी स्वरूप जानकर उनसे पचता तो अवश्य है परन्तु ग्लानि भाव नहीं रखता है। * इस तरह निर्षिचिकित्सित अंग पालता है।
(४) मूरष्टि-मूढताईसे श्रद्धा रखना-सम्यक्ती लोगोंकी देखादेखी मूर्खतासे किसी देव, V गुरु, शास्त्र या धर्मको नहीं मानता है, अमूढदृष्टि अंग पालता है।
(५) अनुपगृहन-दूसरों के दोष निन्दाभावसे प्रगट करना । सम्यक्ती परके दोषोंको प्रगट करनेकी आदत नहीं रखता है। वह जानता है कि प्रमाद व कषायके उदयसे प्राणियोंसे दोष बन जाया करते हैं। इससे दयाभाव लाकर दोषीके दोष छुड़ानेका यत्न करता है, उपगृहन अंग पालता है। " ( अस्थितीकरण-धर्ममें अपने व दूसरोंको स्थिर न करना-सम्यक्ती अपने मनको समझाकर सदा उसे धममें दृढ़ रखता है वैसे ही वह अन्य स्त्री व पुरुषों को भी धर्मसाधनमें दृढ़ रहनेका उपाय करता रहता है-स्थितीकरण अंग पालता है।
(७) वात्सल्य-साधर्मी भाई बहनोंसे प्रेम न रखना- सम्यक्ती सर्व साधर्मियोंको इस