________________
श्रावकाचार
वारणतरण ॐ शांत भावसे जो कुछ मिले आहार करके संतोष मानता है। स्वयं भी भोजनका प्रबन्ध कर सक्ता ॥४१०॥ ४है व अपने घर में भी जीम सक्ता है।
श्लोक-यस्य चित्तं ध्रुवं निश्चय, ऊर्ध अधो च मध्ययं ।
यस्य वित्तं न रागादिः, प्रपंचं तस्य न पश्यते ॥ ४२१ ॥ अन्वयार्थ-(यस्य चित्तं ध्रुवं निश्चय) जिस ब्रह्मचर्य प्रतिमाके धारीके चित्तमें निश्चयतासे अपने स्वरूपका निश्चय होता है (यस्य चित्तं उर्व अधो च मध्ययं रागादिः न) जिसका चित्त ऊपर नीचे मध्यलोक तीनों लोकोमें राग देष मोहको प्राप्त नहीं होता है (तस्य प्रपंचं न पश्यते ) उसके मन में प्रपंच नहीं दिखलाई पडा है।
विशेषार्थ-ससम प्रतिमा घारीका चित्त वैराग्य में बहुत अधिक लवलीन रहता है, उसको इन्द्र, महमिंद्र, धरणेंद्र, चक्रवर्ती, नारायण, तिनारायण आदिक सर्व ही भोग रोगके समान दीखते हैं
जो तीन लोकमे किसी भी पदार्थकी इच्छा नहीं रखता है। केवल अपने शुद्ध आत्मीक स्वभावका पही प्रेमी है, वही मैं हूं ऐसा उसके दृढ अजान है, वह अंतरंगसे रागदेष मोह नहीं रखता है, बहुत
ही सरलतासे या मोह रहितपनासे यदि घरमें रहे तो घरमें, यदि परदंश घूमें तो लोकमें व्यवहार करता है, ब्रह्मचर्यकी दृढता रखता है।
श्लोक-विकहा व्यसन उक्तं च, चक्र धर्णेन्द्र इंद्र यं ।
नरेन्द्र विभ्रमं रूपं, वर्णत्व विकहा उच्यते ॥ ४२२॥ अन्वयार्थ-व्यसन उक्तं च विकहा ) मात व्यसनोंके सम्बन्ध रागवईक चर्चा विकथा है(चक्र षणेन्द्र इंद्रयं नरेन्द्र विभ्रम रूप वर्णत्व विकहा उच्यते) तथा चक्रवर्ती, धरणेंद्र.इंद्र,महाराजा आदिके मोहको उत्पन्न करने वाले भेगादिका वर्णन करना विकथा की जाती है।
विशेषार्थ-ब्रह्मवारी खोटी कथाओंसे विरत रहता है।जुआ खेलन, मांस भक्षण, मदिरा सेवन, वेश्या सेवन, चोरी, शिकार खेलना, परती सेवन, इन सात व्यसनोंमें राग बढानेवाली कथाओंको यह न तो करता है और न सुनता है। तथा इन्द्र, धणेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, प्रति.
mo1