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________________ मो.मा. प्रकाश 28005000/80/0036000%20vo8810028000456700-000-0-8COOCOOJECTo00000000000000000036/000000 तातें तहां प्रवृत्ति करनी युक्त है। बहुरि तुम कहो हो-धर्म के अर्थ हिंसा किए तो महा पाप हो है, अन्यत्र हिंसा किए थोरा पाप हो है, सो यह प्रथम तो सिद्धान्तका वचन नाहीं । अर युक्तिते भी मिले नाहीं । जातें ऐसें मानें इन्द्र जन्मकल्याणविषे बहुत जलकरि अभिषेक करै । है। समवसरणविषै देव पुष्पवृष्टि चमरढारना इत्यादि कार्य करै हैं, सो ये महापापी होंय । जो तुम कहोगे, उनका ऐसा ही व्यवहार है, तो क्रियाका फल तो भए विना रहता नाहीं । जो। पाप है, तो इंद्रादिक तो सम्यग्दृष्टी हैं, ऐसा कार्य काहेकों करें। अर धर्म है, तो काहेकौं । निषेध करो हो । बहुरि तुमकों ही पूछे हैं-तीर्थकर वंदनाकों राजादिक गए, वा साधुवंदनाकों दूरि जाईये है, सिद्धांत सुनने आदि कार्यनिकों गमनादि करिए है। तहां मार्गविषै हिंसा | भई । बहुरि साधी जिमाईये है, साधुका मरण भए ताका संस्कार करिए है, साधु होते। उत्सव करिए है, इत्यादि प्रवृत्ति अब भी दीसे है । सो यहां भी हिंसा हो है, सो ये कार्य तौ ।। धर्मही के अर्थ हैं अन्य कोई प्रयोजन नाहीं । जो यहां महापाप उपजे है, तो पूर्व ऐसे कार्य किए तिनिका निषेध करौ। अर अब भी गृहस्थ ऐसा कार्य करे हैं, तिनिका त्याग कहो।। बहुरि जो धर्म उपजै है, तो धर्म के अर्थि हिंसाविषे महापाप बताय, काहेको भ्रमावो हो। तातें ऐसैं मानना युक्त है। जैसें थोरा धन ठिगाए, बहुत धनका लाभ होय, तो वह कार्य | करना, तैसें थोरा हिंसादिक पाप भए बहुत धर्म निपजे, तो वह कार्य करना। जो थोरा RooporooracioopeopeMOHRCook2800-3000-00-00kgrooperooketo-deo90000000%20foopadfooparoo
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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