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मो.मा. प्रकाश
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धनका लोभकरि कार्य विगारे, तो मूर्ख है। तैसे थोरी हिंसाका भयतें बड़ा धर्म छोरे, तो पापी ही होय । बहुरि कोऊ बहुत धन ठिगावै, अर स्तोक धन निपजावै वा न उपजावै, तो वह मूर्ख है । तैसें बहुत हिंसादिककरि बहुत पाप उपजावै अर भक्ति आदि धर्मविर्षे स्तोक। प्रवर्ते वा न प्रवर्ते, तो वह पापी ही होय है । बहुरि जैसे विना ठिगाए ही धनका लाभ होते | ठिगावै, तो मूर्ख है । तैसें निरवय धर्मरूप उपयोग होते सावद्य धर्मविषै उपयोग लगावना है| युक्त नाहीं। ऐसे अनेक परिणामनिकरि अवस्था देखि भला होय, सौ करना। एकांतपक्ष
कार्यकारी नाहीं। बहुरि अहिंसा ही केवल धर्मका अंग नाहीं है। रागादिकनिका घटना |धर्मका मुख्य अंग है । तातें जैसैं परिणामनिवि रागादि घटे, सो कार्य करना ।
बहुरि गृहस्थनिकों अणुव्रतादिकका साधन भएविना ही सामायिक, पडिकमणो, पोसह आदि क्रियानिका मुख्य आचरन करावे हैं। सो सामायिक तौ गगद्वेषरहित साम्यभाव भए होय, पाठमात्र पढ़े वा उठना बैठना किए ही तो होता नाहीं। बहुरि कहोगे, अन्य कार्य करता, तातें तो भला है। सो सत्य, परन्तु सामायिकपाठविणे प्रतिज्ञा तौ ऐसी करे, जो मनवचनकायकरि सावद्यकों न करूंगा, न कराऊंगा अर मनविर्षे तो विकल्प हुवा ही करे। अर वचनकायविषे भी कदाचित् अन्यथा प्रवृत्ति होय, तहां प्रतिज्ञाभंग होय । सो प्रतिज्ञाभंग करने तें न करना भला । जाते प्रतिज्ञाभंगका महापाप है । बहुरि हम पूछे हैं---कोऊ प्रतिज्ञा भी