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मो.मा. 1 है ताते मिथ्याचारित्रका नाम असंयम वा अविरत जानना। बहुरि इसहीका नाम अत्रत | प्रकाश
जानना । जाते हिंसा अनृत स्तेय अब्रह्म परिग्रह इनि पापकार्यनिविषै प्रवृत्तिका नाम अवत है। सो इनिका मूलकारण प्रमत्तयोग कह्या है। प्रमत्तयोग है सो कषायमय है तातै मिथ्या
चारित्रका नाम अव्रत भी कहिए है। ऐसें मिथ्याचारित्रका स्वरूप कह्या। या प्रकार इस ||| । संसारी जीवकै मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्ररूप परिणमन अनादितै पाइए है। सो| || | ऐसा परिणमन एकेंद्रिय आदि असंज्ञीपर्यन्त तौ सर्व जीवनिकै पाइए है। बहुरि संज्ञी पचेंद्रिय|| निविषै सम्यग्दृष्टी विना अन्य सर्व जीवनिकै ऐसा ही परिणमन पाइए है। परिणमनविषै जैसा
जहां संभौ तैसा तहां जानना । जैसे एकेंद्रियादिककै इन्द्रियाकनिकी हीनता अधिकता पाइए है वा धन पुत्रादिकका संबंध मनुष्यादिककै ही पाइए है सो इनिकै निमित्ततें मिथ्यादर्शना| दिकका वर्णनन किया है। तिसविर्षे जैसा विशेष संभवै तैसा जानना । बहुरि एकेन्द्रियादिक जीव इंद्रिय शरीरादिकका नाम जानें नाहीं है परन्तु तिस नामका अर्थरूप जो भाव है तिस| विषै पूर्वोक्त प्रकार परिणमन पाइए है। जैसे में स्पर्शकरि स्परस्यौं हौं शरीर मेरा है ऐसा नाम न जाने है तथापि इसका अर्थरूप जो भाव है तिस रूप परिणम है। बहुरि मनुष्यादिक केई नाम भी जाने हैं अर ताके भावरूप परिणम हैं। इत्यादि विशेष संभवै सो जान लेना । ऐसे ए मिथ्यादर्शनादिकभाव जीवकै अनादितै पाइए है नवीन ग्रहे नाहीं । देखो याकी महीमा कि