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________________ March मो.मा. प्रकाश 2010 C जो पर्याय धरै है तहां विना ही सिखाए मोहके उदयतै स्वयमेव ऐसा ही परिणमन हो है। बहुरि मनुष्यादिककै सत्य विचार होनेके कारण मिले तो भी सम्यक् परिणमन होय नाहीं।। | श्रीगुरुके उपदेशका निमित्त बनै वह वारंवार समझावें यह कि विचार करै नाहीं । बहुरि ।। आपकौं भी प्रत्यक्ष भासै तौ न मानै अर अन्यथा ही माने । कैसे, सो कहिए है—मरण होते शरीर आत्मा प्रत्यक्ष जुदा हो है। एक शरीरकों छोरि आत्मा अन्य शरीर धरै है सो व्यंतरादिक अपने पूर्व भवका संबंध प्रगट करते देखिए है। परंतु याकै शरीर” भिन्नबुद्धि न होय || सके। स्त्रीपुत्रादिक अपने स्वार्थके सगे प्रत्यक्ष देखिए है। उनका प्रयोजन न सधै तब ही। | विपरीत होते देखिए है । यह तिनिविषे ममत्व करै है । अर तिनिकै अर्थि नरकादिकवि गमनकौं | कारण नाना पाप उपजावै है। धनादिक सामग्री अन्यकी अन्यकै होती देखिए है यह तिनकौं || | अपनी मानै है । बहुरि शरीरकी अवस्था वा बाह्यसामग्री स्वयमेव होती विनशती देखिए है ।। || | यह वृथा आप कर्ता हो है तहां जो अपने मनोरथ अनुसारी कार्य होय ताकों तो कहै मैं | | किया । अर अन्यथा होय ताकौं कहै मैं कहा करौं ? ऐसे ही होना था वा ऐसे क्यों भया। | ऐसा माने, सो के तौ सर्वका कर्ता ही होना था कै अकर्ता रहना था। सो विचार नाहीं । बहुरि मरण अवश्य होगा ऐसा जानै परंतु मरणका निश्चककरि किछु कर्त्तव्य कर नाहीं । इस पर्यायसंबंधी ही जतन करें है। बहुरि मरण का निश्चयकरि कबहू तो कहै, में मरूंगा शरीरकौं || १४० O ND COCOం నిండు
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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