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मो.मा. प्रकाश
प्रशंसाकरि इस छलकरि औरनिकों ऊंचा धर्म छोड़ि नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नाहीं । बहुरि जैसे गुवालियानें मुनिकों अग्निकरि तपाया, सो करुणातें यह कार्य किया। परंतु आया उपसर्गकी तो दूरि करें सहजअवस्थाविर्षे जो शीतादिककी परीषह होय है, तिसकों । दूर भए रति मान लेनेका कारण हो है, सो तिने रति करनी नाहीं, ताते उलटा उपसर्ग होय । यातै विवेकी तिनकै उपचार करते नाहीं। गुवालिया अविवेकी था, करुणाकरि यह | कार्य किया, ताते वाकी प्रशंसा करी । औरकौं धर्मपद्धतिविर्षे जो विरुद्ध होय, सो कार्य करना योग्य नाहीं । बहुरि जैसें वज्रकरण राजा सिंहोदर राजाको नम्या नाहीं, मुद्रिकाविषै । प्रतिमा राखी, सो बड़े बड़े सम्यग्दृष्टी राजादिकों नमें, याका दोष नाहीं, अर मुद्रिकाविषै ।। प्रतिमा राखनेमें अविनय होय, यथावत् विधितै ऐसी प्रतिमा न होय, ताते इस कार्यविषै| दोष है । परंतु वाकै ऐसा ज्ञान न था, धर्मानुरागते मैं यौरको नमों नाहीं, ऐसी बुद्धि भई, ताते वाकी प्रशंसा करी । इस छलकरि औरनिकों ऐसे कार्य करने युक्त नाहीं । बहुरि केई पुरुषोंने पुत्रादिककी प्राप्तिके अर्थ वा रोग कष्टादि दूरि करनेके अर्थ चैत्यालय पूजनादि कार्य । |किए, नमस्कार मंत्र स्मरण किया। सो ऐसे किए तो निकांक्षित गुणका अभाव होय निदानबंधनामा आर्तध्यान होय । पापहीका प्रयोजन अंतरंगविष है, तातै पापहीका बंध || ४१७ होय । परंतु मोहित होयकार भी बहुत पापबंधका कारण कुदेवादिकका तो पूजनादि न ।
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