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काश
किया, इतना गुण ग्रहणकर वाकी प्रशंसा करिए है । इस छलकर औरनिकों लौकिक कार्यनिके अर्थ धर्मसाधन करना युक्त नाहीं । ऐसें ही अन्यत्र जानना । ऐसें ही प्रथमानुयोगविषै अन्य कथन भी होय, तार्कों यथासंभव जानि भ्रमरूप न होना ।
करणानुयोगविषै किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहिए है - जैसें केवलज्ञानकरि जान्या तैसें करणानुयोगविषै व्याख्यान है । बहुरि केवलज्ञानकरि तौ बहुत जान्या, परंतु जीवकों | कार्यकारी जीव कर्मादिकका वा त्रिलोकादिकका ही याविषै निरूपण हो है । बहुरि तिनका भी स्वरूप सर्व निरूपण न होय सकै, तातै वचनगोचर होय छद्मस्थके ज्ञानविषै उनका कि भाव भास, तैसें संकोचन करि निरूपण करिए है ।
यहां उदाहरण — जीवके भावनिकी अपेक्षा गुणस्थानक कहे, ते भाव अनन्त स्वरूप लिए वचनगोचर नाहीं । तहां बहुत भावनिकी एक जातिकरि चौदह गुणस्थान कहे । बहुरि जीव जानने के अनेक प्रकार हैं । तहां मुख्य चौदह मार्गणाका निरूपण किया । बहुरि कर्मपरमाणू अनन्तप्रकार शक्तियुक्त हैं, तिनंविषै बहुतनिकी एक जाति करि आठ वा एकसौ अड़तालीस प्रकृति कहीं । बहुरि त्रिलोकविषै अनेक रचना हैं, तहां मुख्य केतीक रचना निरूपण करिए है । बहुरि प्रमाणके अनन्त भेद तहां संख्यातादि तीन भेद वा इनके इकईस भेद निरूपण किए, ऐसें ही अन्यत्र जानना । बहुरि करणानुयोगविषै यद्यपि वस्तुके द्रव्य क्षेत्र काल भावा
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