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________________ । मो.मा. प्रकारा विषै विकसित होनेका कारन बन्या रहना, रतिविषै इष्टसंयोगका बन्या रहना, अरतिविषै अनिटका दूरि होना, शोकविषै शोकका कारन मिटना, भयविषै भयका मिटना, जुगुप्साविषै जुगुप्सा || का कारन दूरि होना, पुरुषवेदविषे स्त्रीस्यों रमना, स्त्रीवेदविषे पुरुषस्यों रमना, नपुसकवेद| विषे दोऊनिस्यों रमना, ऐसे प्रयोजन पाइए है । सो इनिकी सिद्धि होय तो कषाय उपशमनेते। दुःख दूरि होइ जाइ सुखी होइ परन्तु इनिकी सिद्धि इनके किए उपायनिके आधीन नाही, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है। बहुरि । उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करना || विचार और एक भी उपाय न होता देखिए है । बहुरि काकतालीय न्यायकरि भवितव्य ऐसा ही होइ, जैसा आपका प्रयोजन होइ तैसा ही उपाय होइ अर तातें कार्यकी सिद्धि भी होइ जाइ, तौ तिस कार्यसंबंधी कोई कषायका उपशम होइ परंतु तहां भाव होता नाहीं । यावत् | कार्यसिद्ध न भया तावत् तौ तिसकार्यसंबंधी कषाय' था। जिस समय कार्यसिद्ध भया तिस | ही समय अन्य कार्यसंबंधी कषाय होइ जाय । एक समयमात्र भी निराकुल रहै नाहीं । जैसे कोऊ क्रोधकरि काहूका बुरा विचारै था वाका बुरा होय चुक्या, तब अन्यस्यों क्रोधकरि वाका | बुरा चाहनै लग्या अथवा थोरी शक्ति थी तब छोटेनिका बुरा चाहै था, घनी शक्ति भई तब बड़ेनिका बुरा चाहने लग्या। ऐसे ही मानमायालोभादिककरि जो कार्य विचारै था सो सिद्ध
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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