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________________ मो.मा. प्रकाश 4000010000 हो क्या, तब अन्यविषै मानादिक उपजाय तिसकी सिद्धि किया चाहै । थोरी शक्ति थी तब छोटे कार्यकी सिद्धि किया चाहे था, घनी शक्ति भई तब बड़े कार्यकी सिद्धि करनेका अभिलाष भया । कषायनिविषै कार्यका प्रमाण होइ तौ तिसकार्यकी सिद्धि भए सुखी होइ जाय, सो प्रमाण है नाहीं । इच्छा बधती ही जाय । सोई आत्मानुशासनविषै कला है“आशागर्त्तः प्रतिप्राणि, यस्मिन्विश्वमपमम् । कस्मिन् किं कियदायाति, वृथा यो विषयैषिता ॥ १ ॥” याका अर्थ — आशारूपी खाड़ा प्राणी प्राणी प्रति पाइए है । अनन्तानन्त जीव बहुरि वह आशारूपी खाड़ा कैसा है, जिस एक । । अर लोक आवै । हैं तिनि सबनिकै ही आशा पाइये है ही खाड़ेविषै समस्तलोक असमान है एक ही, सो अब इहां कौन कौन के कहा कितना बटवारे ( हिस्से में ) तुम्हारे यह विषयनिकी इच्छा है सो वृथा ही है । इच्छा पूर्ण तो होती ही नाहीं । तातें कोई कार्यसिद्धि भए भी दुःख दूर न अथवा कोई कषाय मिटै तिस ही समय अन्य कषाय होइ जाय । जैसें काहूक मारनेवाले बहुत होंय, जब कोई वाकूं न मारै तब अन्य मारने लगि जाय । तैसें जीवकों दुःख यावनेवाले अनेक कषाय हैं । जब क्रोध न होय, तब मानादिक होइ जांय । जब मान न होइ, तब क्रोधादिक होइ जांय । ऐसें कषायका सद्भाव रह्या ही करै । कोई एक समय भी कषायरहित ८४
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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