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मो.मा.
प्रकाश
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होइ तहां मरनपर्यन्त कष्ट तौ कबूल करिए है, अर क्रोधादिककी पीड़ा सहनी कबूल न करिए है । तातें यह निश्चय भया जो मरनादिकतें भी कषायनिकी पीड़ा अधिक है । बहु जब याकै कषायका उदय होइ, तब कषाय किए बिना रह्या जाता नाहीं । बाह्य कषायनिके कारन आय मिलें तौ उनकै आश्रय कषाय करै, न मिलें तो आप कारन बनावें । जैसें व्यापारादि कषायनिका कारन न होइ तौ जुआ खेलना वा अन्य कोधादिकके कारन अनेक ख्याल | खेलना वा दुष्टकथा कहनी सुननी इत्यादिक कारन बनाये है । बहुरि काम क्रोधादि पीड़ें शरीरविषै तिनिरूप कार्य करनेकी शक्ति न होइ तौ औषधि बनावै अन्य अनेक उपाय करै । बहुरि कोई कारन बने नहीं तो अपने उपयोगविषै कषायनिकों कारणभृत पदार्थनिका चिंतवनिकरि - आप ही कषायरूप परिणमें । ऐसें यह जीव कषायभावनिकरि पीड़ित हुवा महान् दुःखी हो है । बहुरि जिस प्रयोजनकों लियें कषायभाव भया है तिस प्रयोजनकी सिद्धि होय तो यह मेरा दुःख दूरि होय अर मोकूं सुख होइ । ऐसें विचारि तिस प्रयोजनकी सिद्धि होने अनेक उपाय करना सो तिस दुःख दूरि होनेका उपाय माने है । सो इहां कषायभावनितें जो दुःख हो है, सो तो सांचा ही है । प्रत्यक्ष आप ही दुखी हो है । बहुरि यह उपाय करे है सो कंठा है । कातें सो कहिए है— क्रोधविषै तो अन्यका बुरा करना, मानविषै औरनिकूं नीचा करि आप ऊंचा होना, मायाविषै छलकार कार्यसिद्धि करना, लोभविषै इष्टका पावना, हास्य
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