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अन्वयार्थ-(व्यंजनं च पदार्थ च शाश्वतं नाम सार्थय) अक्षर, शब्द व पदार्थ, नाम व उनके अर्थ सब सारणतरण
सदासे चले आरहे हैं (ॐ वंकारं च विंदते) ॐ के भावको अनुभव करना चाहिये (ध्रुवं ज्ञानमयं सार्थ) श्रावकाचार १३४२॥
निश्चल ज्ञानमई आत्माको साथ २ जानना चाहिये।
विशेषार्थ-यद्यपि देशकालानुसार भाषाओंका परिवर्तन होजाता है तथापि अनादिकालीन ॐ जगतमें मानवोंकी वाणी प्रचलित है व शास्त्रका ज्ञान प्रचलित है, सदा ही तीर्थकर होते रहे हैं, र उनका उपदेश होता रहा है, उसको गणधरोंने सुना है। बादशांगवाणीकी रचना की है। पदार्थोके ।।
नाम रक्खे हैं, नामसे अर्थ निकलता है, अर्थसे नौ पदार्थों के भाव झलकते हैं। ये सब श्रुतज्ञान व शास्त्रज्ञान प्रवाहकी अपेक्षा शाश्वत है, चला आया है, चला जायगा । प्रवाहकी अपेक्षा अनादि व अनन्त है। एक विशेष व्यक्तिकी अपेक्षा सादि व शांत होसक्ता है। ऐसे प्रथमानुयोग शास्त्रके भीतर भी ज्ञानीको ॐ का अनुभव करना चाहिये तथा अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा
साधुका स्वरूप जानना चाहिये । पढनेवालेकी दृष्टि उनके स्वरूपकी खोजपर रहनी चाहिये, ४जहां कहीं बारह भावनाका, ब्रतोंके स्वरूपका, साधुके चारित्रका, उनके अरहंत होनेका, उनके द्वारा ॐ वाणीकै प्रकाशका व सिद्ध होनेका कथन आवे उसको विशेष ध्यानमें लेना चाहिये । चौवीस तीर्थ
करोंके जीवनचरित्रोंमें यह सब कथन आता ही है। फिर इनके भीतर शुद्ध निश्चय नयसे ज्ञानमई शुद्ध निश्चल आत्माको भी पहचाने । जितने प्राणी सिद्ध हुए हैं वे स्वभावसे वैसे ही थे, कमौके
पटलमें ढके हुए थे। पटल इट गया प्रकट होगए। इसतरह हरएक जीवका स्वभाव निश्चयसे शुद्ध ४ बुद्ध अविनाशी परमानंदमय है, ऐमा समझकर वस्तुका आनन्द लूटे। इस दृष्टिसे प्रथमानुयोगके उग्रंथोंको पढनेसे यथार्थ शास्त्रकी भक्तिका फल प्राप्त होसकेगा।
श्लोक-करणानुयोग संपूर्ण, स्वात्मचिंता सदा बुधैः।।
स्व स्वरूपं च आराध्यं, करणानुयोग शाश्वतं ॥ ३५०॥ मन्वयार्थ—(करणानुयोग सम्पूर्ण) करणानुयोग पूर्ण पढना चाहिये (स्वात्मचिंता सदा बुधैः) उसके द्वारा पंडितोंको अपने आत्माकी चिंता करनी चाहिये (च स्वस्वरूपं आराध्य) फिर अपने स्वरूपका ध्यान करना चाहिये (करणानुयोग शाश्वतं) यह करणानुयोग सदासे वस्तुका स्वरूप बतानेवाला है।
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