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-तारणतरण
वितेश्चतुर्गतीनां च ।
विभागको,
यु
तीसरी वि
विशेषार्थ-करणानुयोग सूक्ष्म पदार्थोंका व उनकी सूक्ष्मसे सूक्ष्म अवस्थाका बतानेवाला है। श्रावकाचार रत्नकरंड श्रावकाचारमें इसका स्वरूप है।
लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । भादमिव तथामतिरवैति करणानुयोग च ॥ ४ ॥
भावार्थ-यह करणानुयोग लोक और अलोकके विभागको, युगके परिवर्तनको, चार गतिके जीवोंके स्वरूपको दपणके समान यथार्थ बतलानेवाला है। कारण तीसरी विभक्तिको भी कहते हैं जो किसी वस्तुका साधन हो उसे करण कहते हैं। अंक गणित, रेखा गणित, बीज गणित, क्षेत्र समास आदिका ज्ञान भलेमकार करके तीन लोकका आकार, माप, नारकी, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, मनुष्य, तिर्यच, कल्पवासी देव व कल्पातीत अहमिंद्र व सिडलोक इन सबका कहां । क्षेत्र है, वह क्षेत्र कितना बडा है, किस तरह स्थित है यह सब जानना चाहिये । अबसर्पिणी उत्सर्पिणी कालका परिवर्तन कहां होता है कैसे होता है व कहां नहीं होता है यह जानना चाहिये । चार गतिके जीवोंके भाव किस तरहके होते हैं उनकी क्या २ अवस्थाएं होती हैं, उनके परिणाम कैसे चढते हैं, कौन २ गुणस्थान किस गतिमें होते हैं, किस गतिमें किसके कितने
काँका बंध, उदय व कितने कमौकी सत्ता रहती है, परिणामोंका चढन किस तरह होता है, ॐ सूक्ष्मसे सूक्ष्म हिसाब हरएक प्राणीकी अवस्थाका बतानेवाला यह करणानुयोग है। जिन ४
परिणामोंसे सम्यक्त होता है उन अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण भावोंको झलकाता है। सम्यक्तीको बंधक क्यों कहते हैं व अबंधक क्यों कहते हैं यह भेद करणानुयोगके हिसाबसे मालूम पडता है कि वह मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियोंका बंध नहीं करता है परंतु चारित्र मोहके उदय जनित मलीनताकी अपेक्षा बंध करता है । करणानुयोग बताता है कि किसतरह कषायोंका धीरे २
घटाव गुणस्थान गुणस्थानपर होता है व किसतरह कषायके यकायक उदय आजानेसे यह जीव छठे 5 गुणस्थानसे मिथ्यात्वमें व पांचवें व चौथेसे मिथ्यात्वमें चला आता है। जो यह बाहरी क्रियापर
लक्ष्य न देता हुआ भावोंकी तौल करना बताता है। एक मुनि यदि संसारासक्त है, आत्मानुभवकी कलासे खाली है तो यह करणानुयोग उसको मिथ्यादृष्टी कहता है । तथा एक चंडाल यदि सम्यक्तसे विभूषित है तो यह उसको सम्यग्दृष्टी, ज्ञानी व मोक्षमार्गी कहता है। श्री त्रिलोकसार, गोमहसार, ॥३४॥