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खारणतरण
श्रावकाचार अन्वयार्थ-(प्रथमानुयोग विदेते ) प्रथमानुयोग शास्त्रका अनुभव करना चाहिये (व्यञ्जन पद शब्दयं 5 ॥३४॥ Vतदर्थ पद शुद्ध च) उनके अक्षर, शब्द, वाक्य तथा उसके अर्थ व उसके भावार्थ व उससे प्रगट पदार्थको ४
शुद्ध जानना चाहिये (ज्ञानं आत्मालं गुणं) यथार्थ ज्ञान ही आत्माका गुण है।
विशेषार्थ-प्रथमानुयोगमें महान पुरुषों के जीवनचरित्र होते हैं। उनमें कविता व अलंकार छंद व मनोहरता भी होती है जिससे प्रथम अवस्थाके रागी शिष्योंका मन कथाओंके पढने में रंजायमान होसके। अनेक दृष्टांत दे करके नगरकी, शरीरकी व अन्य पदार्थों की शोभा कही जाती है, युद्धादिका भी वर्णन आता है। धर्म, अर्थ, काम तीनों पुरुषार्थोंको गृहस्थोंने कैसा साधा उसका कथन आता है। कहीं शृंगार, कहीं वोर, कहीं भय, कहीं शोक, कहीं रुदन, कहीं रौद्रध्यान आदि अनेक भावोंका कथन आता है। कहीं वैराग्य व संसारकी असारताका वर्णन आता है। पढनेवालेको उचित है कि अक्षरोंको ठीक पहचाने, उनके मिले हुए शब्दोंको अलग १ जाने, उन शब्दोंके मिले हुए। वाक्योंको अलग २ समझें, वाक्योंके अर्थ ठीक २ लगावें, फिर उनका भावार्थ ठीक २ समो, फिर ४ उनसे किस पदार्थका वर्णन झलकता है सो जाने, नौ पदार्थों मेंसे किसका वर्णन है सो पहचाने, जीवका है कि अजीवका है, आश्रवका है कि बंधका है, संवरका है कि निर्जराका है, मोक्षका है कि पुण्य तथा पापका है। जहां आश्रव बंध पुण्य पाप अजीवका कथन आवे उसको त्यागने योग्य जाने, जहां संवर, निर्जरा व मोक्ष तथा जीवका कथन आवे उसको व्यवहार नयसे ग्रहण योग्य माने । प्रथमानुयोगके कथा-ग्रंथोंको पढते हुए कथाओंके राग द्वेषमई वर्णनमें रंजायमान न होवे, किन्तु उनको जानकर पाप पुण्य कर्मका फल विचारे । किन २ भावोंसे कैसा २ काँका आश्रव व बंध किस जीवने किया व कौन २ धर्म पाला जिससे पापोंको रोका व कैसा तप किया जिससे कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष पाई, इसतरह पढनेवालेकी दृष्टि धर्मध्यानकी तरफ व तत्वके विचारकी तरफ रहनी चाहिये, तब ही आत्मामें यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति होगी। यह प्रथमानुयोग भी जीवनका चारित्र उत्तम बनानेके लिये बहुत उपयोगी है।
श्लोक-व्यंजनं च पदार्थ च, शाश्वतं नाम सार्थयं । ॐ वंकारं च विदंते, साधं ज्ञानमयं ध्रुवं ॥ ३४९ ॥
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