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________________ धारणतरण ॥२७८॥ Dÿÿÿ विशेषार्थ — पात्रदान धर्मका पोषक है तब अपात्र दान अधर्मका पोषक है । पात्रदानसे रत्न - अपका लाभ होता है क्योंकि दातार रत्नत्रय स्वरूप मुनि, आवक, व श्रावानोंकी भक्ति करता है east संगति ही परिणामों में वैराग्यभाव ला देती है, उनका उपदेश भी भावोंको शांत कर देता है । धर्म में गाढ रुचि पैदा कर देता है। जो कुछ मिथ्यात्वकी व मायाकी व निदानकी शल्य अंतरंगमें हो उसको निकाल डालता है । छिपा हुआ सम्यग्दर्शन रूपी रत्न प्रकाशमान होजाता है । वीतरागके अंशोंके बढनेसे मिथ्यादृष्टी जीव पात्रोंके संपर्क से सम्यग्दृष्टी होजाता है । व धर्मके पात्र साधु व श्रावक बडे दयालु होते हैं। उनके निरंतर अपायविचय धर्मध्यान होता है कि हम किसी तरह संसारी प्राणियोंके मिथ्यात्व अंधकारके मिटाने में कारणीभूत हो। जैसे हमको आत्मीक सुखशांतिका लाभ है वैसा ही लाभ जगतके प्राणियोंको हो। ऐसे महात्माओंका सन्मान- उनको दान देना अपने परम कल्याणका उपाय है । धर्मके इच्छावानोंको निरन्तर पात्र दान करना चाहिये । दान किये विना आहार ही न करना चाहिये । नित्य पात्र दान करना मानों नित्य सुख शांतिके सागर पात्रोंकी संगतिसे आत्म-धर्मका लाभ करना । इसलिये जैसे मधुमक्खी, मधुके एकत्र करनेमें आसक्त रहती है उसी तरह विवेकी मानवको पात्रोंकी सेवा में तल्लीन रहना चाहिये । इसीसे धर्मका संग्रह होगा । पापों का नाश होगा तब संसारके दुःखोंसे रक्षा रहेगी । इसके विरुद्ध जो अपात्रोंको मान या लोभके वशीभूत हो दान करते रहते हैं वे कुधर्मकी शिक्षा लेते हुए संसारासक्त बन जाते हैं जगतकी मायाजाल में फँसे हुए वे नरकायु बांधकर नरक में चले जाते हैं । अतएव अपात्रोंकी भक्ति से बचकर पात्रोंकी भक्तिसे स्वहित करना चाहिये । श्लोक – पात्रदानं च प्रति पूर्ण, प्राप्तं च परमं पदं । शुद्धतत्वं च साधं च, ज्ञानमयं सार्थं ध्रुवं ॥ २८० ॥ अन्वयार्थ - ( पात्रदानं च प्रति पूर्ण ) पात्रदानका पूर्ण फल यह है कि ( परमं पदं प्राप्तं ) परमपद जो मोक्ष उसकी प्राप्ति होती है (शुद्धतत्वं च सार्धं च ) जो शुद्ध आत्मीक तत्व सहित है ( ज्ञानमयं सार्थ भुवं ) व ज्ञानमय यथार्थ निश्चल है । विशेषार्थ – पावदानका फल अंतमें मोक्षकी प्राप्ति है। जो पात्रोंको भक्तिपूर्वक दान देते हैं श्रावकाचार ॥२७८॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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