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बारणवरण श्लोक-पात्रदानं च भावेन, मिथ्यादृष्टी च शुद्धए ।
श्रावावर भावनाशुद्ध सम्पूर्ण, दानं फलं स्वर्गगामिनं ॥ २७८ ॥ ॥२७॥
अन्वयार्थ-(पात्रदान भावेन ) पात्रदान करने से व उसकी भावना करनेसे (मिथ्यादृष्टी च शुद्धए) मिथ्यादृष्टीकी शुद्धि होसक्ती है। (शुद्धभावनं संपूर्ण ) जो शुद्ध आत्माकी भावनासे परिपूर्ण सम्यग्दृष्टी है उसको ( दानं फलं स्वर्गगामिनं) पात्रदानका फल स्वर्गगमन है।
विशेषार्थ-पात्रदानका यह महात्म्य है कि यदि कोई शुद्ध आत्माकी भावना करनेवाला सम्यग्दृष्टी जीव पात्रोंको दान करे तो स्वर्गमें जाकर देव होने योग्य पुण्य बांधेगा। यहां भाव यह है कि सम्यक्ती गृहस्थ स्वभावसे पात्र भक्त होजाता है व वह पात्रोंको दान देता है। सम्यक्ती तो स्वर्गमें देव अवश्य ही होता है। यदि सम्यक्तके पहले और आयु बांधी होगी तो अन्यत्र पैदा होगा। जो कोई मिथ्यादृष्टी जीव है अर्थात् निश्चय सम्यक्ती तो नहीं है किंतु व्यवहारमें देव, शास्त्र, गुरुका अडावान है और पात्रोंको दान देता है तो उसका वह पात्रदान व रत्नत्रयधारियोंकी भक्ति निश्चय सम्यक्तके लिये कारणरूप है। ऐसे ही निमित्तोंके मिलानेसे वह सम्यक्तके बाधक कौंका उपशम करके निश्चय सम्यक्ती होजाता है। तथा पात्रदानके फलसे मिथ्यादृष्टी भोगभूमिमें जानेलायक पुण्य बांध लेता है।
यहां प्रयोजन यह है कि पात्रदान हरएक श्रद्धावानको करते रहना चाहिये। अपना गृहस्थका ४ घर दान विना पवित्र नहीं होसक्ता है । दान करनेसे परिणाम उदार रहते हैं। लक्ष्मीके संचयका मोह कम होजाता है।
श्लोक-पात्रदानरतो जीवः, संसारदुःखं निपातए ।
कुपात्रदानरतो जीवः, नरयं पतितं ते नरा ॥ २७९ ॥ मन्वयार्थ—(पात्रदानरतो जीवः) जो जीव पात्रोंको दान देने में लवलीन हैं वह ( संसारदुःखं निपातए) संसारके दु:खोंको दूर कर देता है (कुपात्रदानरतो जीवः) परन्तु जो अपात्रोंके दानमें रत हैं (ते नरा * नरयं पतितं) वे मानव नरकमें जाते हैं।
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