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________________ जनके भीतर रत्नत्रय धारकोंसे आजा बढती जाती है जिसका असर उनकी बुद्धिमें यह पडता है.श्रावास भरणतरण कि वे सम्यक्ती होजाते हैं। सम्यक्ती होना ही मोक्षमार्गको प्राप्त कर लेना है । एक दफे सम्यक होगया तो वह प्राणी अवश्य मोक्षको पहुंचेगा। जहां ज्ञानमई शुद्ध आत्मीक तत्व निश्चल अपने स्वरूपमें कल्लोल किया करता है। गृहस्थ श्रावकोंको और कोई इच्छा मन में न रखके मात्र शुद्ध आत्मीक तत्वके लाभके लिये ही पात्र दान करना चाहिये। पात्रोंकी सचे भावसे भक्ति करना चाहिये । मुनि उत्तम पात्र हैं, उनका समागम कठिन है, परन्तु श्रावक पदके धारी मध्यम पात्र पहलीसे ग्यारहमी प्रतिमा तक सुगमतासे मिल सक्के हैं उनको आहार, औषधि, आश्रय दान व ज्ञान दान करना चाहिये-उनको शास्त्र बांटना चाहिये, किसी विद्वान शास्त्रीका निमित्त मिलाकर उनके ज्ञानकी वृद्धि करनी चाहिये । जघन्य पात्र तो बहुतसे स्त्री, पुरुष, बालक, बालिकाएँ मिल सक्त हैं। जिनके यहां कुदेवोंकी भक्ति नहीं है, उनको चार प्रकार दानसे सन्तुष्ट करना चाहिये। ज्ञानकी वृद्धिके लिये धर्म शिक्षा देना चाहिये, पुस्तकोंको बांटना चाहिये, स्वयं धर्मोपदेश देना चाहिये, अनाथों की रक्षाके हेतु अनाथालय खोलना चाहिये, ब्रह्मचर्याश्रम खोलना चाहिये, जिससे बालक ब्रह्मचारी रूपमें रहकर विद्याका अभ्यास करें। श्राविकाश्रम व कन्याशाला आदि खोलना चाहिये यह सब पात्र दानका अंग है, धर्मकी वृद्धिका कारण है। श्लोक-पात्रं प्रमोदनं कृत्वा, त्रिलोकं मुदा उच्यते । यत्र तत्र उत्पाद्यते, प्रमोदं तत्र जायते ॥ २८१॥ अन्वयार्थ-(पात्रं प्रमोदनं कृत्वा) जो पात्रोंको देखकर मन में प्रसन्नता लाते हैं उनके लिये (त्रिलोकं मुदा उच्यते) तीन लोकके प्राणी प्रसन्नता देनेवाले कहे गए हैं (यत्र तत्र उत्पाद्यते ) जहां तहां पात्रदानी पैदा होता है ( तत्र प्रमोदं जायते ) वहां वहां उसको प्रमोदभाव प्राप्त होता है। विशेषार्थ— उत्तम, मध्यम, जघन्य तीनों ही प्रकारके पात्रोंका दर्शन करके जिनका चित्त प्रमोद भावसे भरकर प्रसन्न होजाता है उनके ऐसा अपूर्व पुण्यका बंध होता है। ऐसा सातवेदनीय, सुभग नामकर्म, आदेय नामकम, यशाकीर्ति, उच्च गोत्र आदि पुण्य प्रकृतियों का बंध पडता है, ॐ जिससे वे तीन लोकमें जहां कहीं भी उत्पन्न होते हैं उनको हरजगह प्रसन्नता प्राप्त होती है। ४ ॥२७॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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