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________________ मामा प्रकाश का अभ्यासादि न होनेते व्युच्छित्ति भई । बहुरि कितेक महान् ग्रंथ पाइये हैं तिनिका बुद्धिकी। मंदतात अभ्यास होता नाहीं । जैसे दक्षिणमें गोमट्टस्वामीके निकटि मूलविद्री नगरविर्षे धवल || महाधवल जयधवल पाइये हैं । परन्तु दर्शन मात्र ही हैं । बहुरि कितेक ग्रंथ अपनी बुद्धिकरि ।। अभ्यास करने योग्य पाइये हैं । तिनि विर्षे भी कितेक ग्रंथनिका ही अध्यास बने है । ऐसें इस निकृष्ट कालविर्षे उत्कृष्ट जैनमतका घटना तो भया परंतु इस परंपरायकरि अब भी जैन शास्त्रविषे सत्य अर्थके प्रकाशनहारे पदनिका सद्भाव प्रवर्ते है । बहुरि हम इस कालविषै इहां अब मनुष्यपर्याय पाया सो. इसविषै, हमारे पूर्व संस्कार” वा भला होनहारतें जैनशास्त्रनिविषे अभ्यास करनेका उद्यम होत भया । तातै व्याकरण न्याय गणित आदि उपयोगी ग्रंथनिका किंचित् । अभ्यास करि टीकासहित समयसार पंचास्तिकाय प्रवचनसार नियमसार गोमट्टसार लब्धिसार त्रिलोकसार तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि शास्त्र अर क्षपणासार पुरुषार्थसिद्धयु पाय अष्टपाहुड़ आत्मानुशासन आदि शास्त्र अर श्रावक मुनिका आचारके प्ररूपक अनेक शास्त्र अर सुष्टुकथासहित || पुराणादि शास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्र हैं तिनिविष हमारै बुद्धि अनुसारि अभ्यास वर्ते है। तिसकरि हमारै हू किंचित् सत्यार्थ पदनिका ज्ञान भया है । बहुरि इस निकृष्ट समयविषै हम सारिखे मंदबुद्धीनितें भी हीनबुद्धि के धारक घने जन अवलोकिये है । तिनिकों तिनि पदनिके अर्थका ज्ञान होनेके अर्थि, धर्मानुरागके वश” देशभाषामय ग्रंथ करनेकी हमारै इच्छा भई है ।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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