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प्रकाश
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मो.मा.|| ताकरि हम यह ग्रंथ बनावे हैं सो याविषै भी अर्थसहित तिन ही पदनिका प्रकाशन हो है ।
| इतना तो विशेष है जैसे प्राकृत संस्कृत शास्त्रनिविषै प्राकृत संस्कृत पद लिखिए है तैसैं इहां । | अपभ्रंश लिए वा यथार्थपनेकूलिए देशभाषारूप पद लिखिए है परन्तु अर्थविषै व्यभिचार किछु ।
नाहीं है । ऐसें इस ग्रंथपर्यंत तिनि सत्यार्थपदनिकी परंपराय प्रवर्ते है। इहां कोऊ पूछे कि । परम्पराय तौ हम ऐसे जानी परन्तु इस परंपरायविर्षे सत्यार्थ पदनिहीकी रचना होतो आई | असत्यार्थ पद न मिले, ऐसी प्रतीत हमकों कैसे होय । ताका समाधान- असत्यार्थ पदनिकी रचना अति तीव्र कषाय भए बिना बने नाहीं । जातें जिस असत्य रचनाकरि परंपराय अनेक जीवनिका महा बुरा होय आपकों ऐसी महा हिंसाका फलकरि | नर्क निगोदविषै गमन करना होइ सो ऐसा महाविपरीत कार्य तो क्रोध, मान, माया, लोभ, अत्यन्त तीव्र भये ही होय । सो जैन धर्मविषै तो ऐसा कषायवान होता नाहीं । प्रथम मूल | उपदेशदाता तौ तीर्थंकर केवली भये सो तौ सर्वथा मोहके नासतें सर्व कषायनि करि रहित ही हैं । बहुरि ग्रंथकर्ता गणधर वा आचार्य ते मोहका मन्द उदयकरि सर्व बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहकों त्यागि महा मंदकषायी भए हैं, तिनिकै तिस मंदकषायकरि किंचित् शुभोपयोगहीकी प्रवृत्ति पाइए है और किछू प्रयोजन है नाहीं। बहुरि श्रद्धानी गृहस्थ भी कोऊ ग्रंथ बना है सो भी तीवकषायी नाहीं है जो वाकै तीवकषाय होय तौ सर्वकषायनिका जिस-तिस प्रकार
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