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________________ मो.मा. प्रकाश नाश करणहारा जो जिनधर्म तिसर्विषे रुचि कैसे होय अथवा जो मोहके उदयतें अन्य कार्यनिकर कषायपो है तौ पोषौ परन्तु जिनश्राज्ञा भंगकर अपना कषाय पोषै तौ जैनीपना रहता नाहीं, ऐसें जिनधर्म्मविषै ऐसा तीव्रकषायी कोऊ होता नाहीं जो असत्य पदनिकी रचना - करि परका अर अपना पर्याय पर्यायविषै बुरा करे । इहां प्रश्न, जो कोऊ जैनाभास तीव्र - कषायी होय असत्यार्थ पदनिकों जैन शास्त्रनिविषै मिलावे पीछें ताकी परंपरा चली जाय तौ कहा करिये । ताका समाधान जैसे कोऊ सांचे मोतीनिके गहनेविषै झूठे मोती मिलाबै परन्तु झलक मिलै नाहीं तातें परीक्षाकरि पारखी ठिगावै भी नाहीं, कोई भोला होय सो ही मोती नामकरि ठिगावै है । | बहुरि ताकी परंपरा भी चलें नाहीं, शीघ्र ही कोऊ झूठे मोतीनिका निषेध करें है । तैसें कोऊ सत्यार्थ पदनिके समूहरूप जैनशास्त्रनिविषे असत्यार्थ पद मिलावे परंतु जिनशास्त्र के पदनिविषै तौ कषाय मिटावनेका वा लौकिककार्य घटावनेका प्रयोजन है और उस पापीनै जे असत्यार्थ पद मिलाए हैं तिनिविषै कषाय पोषनेका वा लौकिक कार्य साधनेका प्रयोजन है ऐसें प्रयोजन मिलता नाहीं तातैं परीक्षाकरि ज्ञानी ठिगावते भी नाहीं, कोई मूर्ख होय सो ही जैनशास्त्र नामकरि ठिगावै है बहुरि ताकी परंपरा भी चाले नाहीं, शीघ्र ही कोऊ तिनि असत्यार्थ पदनिका निषेध करें है । बहुरि ऐसे तीव्रकषायी जैनाभास इहां इस निकृष्ट कालविषै ही होय हैं १८
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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