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मो.मा.
प्रकाश
उत्कृष्ट क्षेत्र काल बहुत हैं तिस विषै तो ऐसे होते नाहीं । तातें जैनशास्त्रनिविषै सत्यार्थ | पदनिकी परम्परा चलै नाहीं ऐसा निश्चय करना । बहुरि वह कहै है कि कषायनिकरि तौ | सत्यार्थ पद न मिलावे परन्तु ग्रंथ करनेवालेकै क्षयोपशम ज्ञान है तातें कोई अन्यथा अर्थ भासै ताकर सत्यार्थ पद मिलावे ताकी तौ परंपरा चले; ताका समाधान, -
मूलग्रंथकर्ता तौ गणधरदेव हैं ते आप च्यारिज्ञानके धारक हैं और साक्षात् केवलीका दिव्यध्वनि उपदेश सुने हैं ताका अतिशयकरि सत्यार्थ ही भासे है । ताही अनुसार ग्रंथ बनावें हैं । सो उन ग्रंथनिविषै तो असत्यार्थ पद कैसे गूंथे जांय अर अन्य आचार्यादिक ग्रंथ बनावें हैं ते भी यथायोग्य सम्यग्ज्ञानके धारक हैं । बहुरि ते तिनि मूल ग्रंथनिका परंपरा| करि ग्रंथ बनावै हैं । बहुरि जिन पदनिका आपकौं ज्ञान न होइ तिनकी तो आप रचना करें नाहीं, अर जिन पदनिका ज्ञान होय तिनिकों सम्यग्ज्ञान प्रमाणतें ठीक ग्रंथ हैं सो प्रथम तौ ऐसी सावधानीविषै असत्यार्थ पद गूंथे जाय नाहीं, अर कदाचित् आपकों पूर्व ग्रंथनिके पदनिका अर्थ अन्यथा ही भासै अर अपने प्रमाणतामें भी तैसें ही प्राय जाय तो याका किछू सारा नहीं । परन्तु ऐसें कोईको भासे, सबहीकों तौ न भासै । तातैं जिनकों सत्यार्थ भास्या | होय ते ताका निषेधकरि परंपरा चलने देते नाहीं । बहुरि इतना जानना, जिनकौं अन्यथा जाने जीवका बुरा होय ऐसा देव गुरु धर्मादिक वा जीवादिक तत्त्वनिकों तौ श्रद्धानी जैनी अन्यथा
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