________________
RECEGEGEKAGEGRECENTRACKAGEGREEKKERAGAR
शरीरको कष्ट दिया जाये, क्षुधा तृषा दंश मशकादिका परीषद तथा देव, मनुष्य, पशु अचेतन
श्रावकार कृत उपसर्ग सहन किये जाये। जो कोई जैन शास्त्रों के अनुसार अनशन, ऊनोदर आदिवारहप्रकार * तप करे, नग्न रहे, शास्त्रोक्त शुद्ध आहार ग्रहण करे, कोई क्रिया शाखाके विरुद्ध न हो परंतु यदि आत्मीक ध्यान अग्निमें तपनरूप तप न हो तो वह अशुद्धही मिथ्या तप है। समयसारमें कहा है
बदणियम्माणपरन्ता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । परमवाहिरा भेण तेण ते होंति अण्णाणी ॥१६॥
भावार्थ-जो व्रत, नियम धारण करे, शील पाले तथा तप करे परंतु शुद्धास्माके अनुभव करून परमार्थसे शून्य हो तो वह अज्ञानी ही है। सम्यक्त रहित द्रव्यलिंगी मुनिका तप अशुद्ध तप है। इसी तरह कोई श्रावक बत उपवास करे रस छोडे, कठिन २ तप करे, परंतु सम्यग्दर्शन रहित होतो उसका सब तप मिथ्या तप है। यदि कोई बाहरसे भी मिथ्या तप पाले, पंचाग्नि तपे, भस्म रमावे, काष्ट जलावे, शरीर शोखे, वनफल खावे, एक हाथ ऊँचा करे, खडा रहे, अल्पाहार करे तो वह भी मिथ्या तप है अथवा कोई परको वश करनेके लिये नानाप्रकार तप करके अपना महत्व दिखावे वह भी मिथ्या व मायाचार सहित तप है। गृहस्थीका भी वह तप जो शरीर-कष्टरूप है, हिंधारूप है व किसी मायाचारके अभिमायको लिये हुए है वह सब मिथ्या तप है।
श्लोक-दानं अशुद्ध दानं च, कुपात्रं दिति सर्वदा।
वतभंगं कृतं मूढा, दानं संसारकारणं ॥ ३१७॥ मन्वयार्थ-(कुपात्रं विति सर्वदा दानं च ) अपात्रोंको निरन्तर दिया हुआ दान (अशुद्ध दानं) अशुद्ध दान कर्म है (व्रतमंग कृतं मूढा) इससे मिथ्यादृष्टी मूढ पुरुषाका सम्पदर्शनका व्रत भी भंग होजाता है (दान) ऐसा दान संसारका कारण है।
विशेषार्थ-अशुद्ध दान भी दो प्रकार है-एक तोसम्यग्दर्शन रहित कुपात्रोंको दिया हुआ दान र यह भी संसार मूलक है, पुण्य वांधकर कुभोग भूमिमें जन्म कराता है। फिर भवनत्रिकादिमें फिर
अन्य जन्ममें संसारका भ्रमण करानेवाला है। जिनका बाहरी चारित्र ठीक है शास्त्रोक है परन्तु * अन्तरंगमें सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मानुभव नहीं है वे कुपात्र हैं, यह भी सम्यक्त रहित दान होनेसे ४
अशुद्ध दान है । दूसरा अशुद्ध दान वह है जो उनको दिया जाता है जो अपात्र हैं, जो बाहरी