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बारणवरण
चारित्र जिन शास्त्रसे विकर पालते हैं। जो एकांत व मिथ्या मतके पोषक हैं। जिनको दान देनेसे मिथ्यामतकी सराहना होती है वह बिलकुल मिथ्या दान है व पापका बंध करनेवाला है। गृहस्थ
श्रावकको उचित है कि अपात्रोंको भक्तिपूर्वक दान न करें। दान करुणाभावसे हरएकको किया र जासक्ता है, उसमें भक्तिकी जरूरत नहीं है। जिस दानमें सम्यक्तकी प्रतिष्ठा ही वही शुद्ध दान है * यह पहले बता चुके हैं । अपात्र दान संसार भ्रमणका ही कारण है।
श्लोक—ये षट्कर्म पालंते, मिथ्या अज्ञान दिष्टते ।।
ते नरा मिथ्यादृष्टी च, संसारे भ्रमनं सदा ॥३१८॥ मन्वयार्थ-(ये षट्कर्म पालंते) जो कोई इन अशुद्ध छ: कोको पालते हैं (मिथ्या अज्ञान विष्टते) उनमें मिथ्यात्व व अज्ञान दिखलाई पडता है (ते नरा मिथ्यादृष्टी च) वे मानव मिथ्यादृष्टो ही हैं (संसारे भ्रमणं सदा) उनका सदा इस संसारमें भ्रमण रहेगा।
विशेषार्थ-जो कोई कुदेव पूजा करते हैं, कुगुरु सेवा करते हैं, मिथ्यात्व वर्द्धक शास्त्रोंका पठन करते हैं, हिंसाकारक संयम पालते हैं, कायक्लेशादि तप आत्मज्ञान रहित करते हैं तथा अपात्रोंको दान देते हैं इस तरह जो कोई इन छः गृहस्थोंके अशुद्ध षटकर्म पालते हैं वे मिथ्या ज्ञानी व मिथ्या अडानी हैं। ऐसा मिथ्यादृष्टी मानव मिथ्या धर्मका पुरुषार्थ करते हुए मिथ्या फल ही पाते हैं। पाप ही बांधते हैं व दुर्गतिमें जाकर कष्ट पाते हैं। जिन गृहस्थोंको अपना आत्महित करना हो उनको विवेकपूर्वक पहचानना चाहिये कि कौन देव सचा है, कौन गुरु सच्चा है, तथा कौन धर्म सच्चा है। फिर उनकी ही भक्तिमें रहकर उनकी आज्ञा पालन करना चाहिये । यह भलेप्रकार समझना चाहिये कि रागदेष मोह संसार है व वीतरागमय आत्मज्ञान ही मोक्ष या मोक्षका उपाय है। यह प्राणी
कषायोंके कारण जगत में अनादिकालसे भ्रमण कर रहा है। जब जहां कषायोंकी पुष्टिको धर्म पोषा ४ जावे तो वह उल्टा अधर्म सेवन ही है, धर्म नहीं होसका है। जहां शुद्धास्म लाभपर दृष्टि है वह तो४
पथार्थ धर्म है। जहां सांसारिक सुख प्राप्तिकी भावना है वहीं अधर्म है। गृहस्थ श्रावकको बहुत विचारपूर्वक अपना श्रद्धान निर्मल करना चाहिये और सच्ची श्रद्धा सहित धर्माचरण करना चाहिये। अमितगति श्रावकाचारमें कहा है
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