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________________ श्रावकाचा मिथ्यात्वदूषणमपास्य विचित्रदोष, संरूढसंमृतिवधूपरितोषकारि । अरणवरण ४ सम्यक्तरत्नममल हृदि यो विधत्ते, मुक्त्यंगनामितगतिस्तमुपैति सद्यः ॥९८-१॥ ॥३१॥ मावार्थ-पढती हुई संसार वधुके संतोष देनेवाले नानाप्रकार दोषसे पूर्ण मिथ्यात्वके दोषको छ दूर करके जो निर्मल सम्यग्दर्शनरूपी रस हृदय में धरते हैं वे अनंतज्ञान सहित मुक्ति स्त्रीको शीघ्र ही पाते हैं। श्लोक ये षट्कर्म जानते, अनेय विभ्रम कृते । __ मिथ्यात्व गरुवे संते, दुर्गतिभाजन ते नरा ॥ ३१९ ॥ अन्वयार्थ (ये) जो कोई (अनेय विभ्रम रुते ) अनेक प्रकार मिथ्याभावको करनेवाले (षट्कर्म ) छ: * अशुद्ध कौंको (जानते) जानते हैं (ते नरा) वे मानव (मिथ्यात्त्व गरुवे सते) मिथ्यादर्शनसे भारी होते हुए (दुर्गतिभाजन ) दुर्गतिके पात्र होते हैं। विशेषार्थ-जिनको शुद्ध देवपूजादि षट्कर्मका न ज्ञान है न अडान है न उसका आचरण है वे अशुद्ध षटकर्मको ही करने योग्य कर्म मान लेते हैं। अनेक प्रकारके मिथ्या भावों में पड़े हुए अनेक प्रकारके कुदेवोंकी व अदेवोंकी भक्ति करते हैं, कुगुरुओंकी सेवा करते हैं, रागद्वेष मोहवर्डक ग्रंथोंको पढते हैं, असंयम व हिंसाको संयम मान लेते हैं, मात्र कायक्लेशको तप ठान लेते हैं, अपात्रोंको दान देकर संतोष मान लेते हैं ऐसे अशुद्ध षट्कर्मके सेवनेवालोंके परिणामोंमें कषायोंके पोखनेका ही भीतरी अभिप्राय रहता है । या तो वे पुत्र व सम्पत्तिके लोभसे या स्वर्गादि सुखोंके लोभसे षट्कर्म करते हैं या अपनी मान बडाई पुष्ट करनेको या किसी तरहके कपट भावसे करते रहते हैं। जैसा अभिप्राय होता है वैसा ही फल होता है। कषाय पुष्टिका अभिप्राय संसारका ही बढानेवाला न है। घे दुर्गतिमें रुलते हुए जन्म-मरणके महान कष्ट पाते हैं। जहां आत्माकी शुडिके प्रयोजनसे देव पूजादि षट्कर्म किये जाते हैं वहीं मोक्षमार्गका उपाय होरहा है, ऐसा कहा जायगा। रामदेष मोह संसार है, जहां इनकी पुष्टि है वहां संसारकी पुष्टि है। ॥२९॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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