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________________ श्रावकार ॥३१॥ शुद्ध षट्कर्म विचार। श्लोक-पद्कर्म शुद्ध उक्तं च, शुद्ध समय शुद्धं ध्रुवं । जिनोतं षट्कर्मस्य, केवलि दृष्ट जिनागमे ।। ३२०॥ अन्वयार्थ (शुद्ध षटकर्म उकं च) अब शुद्ध षद्कोको कहा जाता है, जहा अभिप्राय (शुद्ध शुद्ध ध्रुवं समय) रागादि भावोंसे शुन्य तथा ज्ञानावरणादिसे शून्य निश्चल शुद्धात्माका लाभ है वे ही शुद्ध षट्कर्म हैं। (मिनोक्तं षट्कर्मस्य ) ये जिनेन्द्र भगवानके कहे हुए षट्कर्म (केवली दृष्ट निनागमे) केवलीकी परम्परासे जिनागममें प्रमाणिक कहे गए हैं। विशेषार्य-शुद्ध षट्कर्म ही हैं जहां आस्माकी शुद्धताका अभिप्राय हो। देवपूजादि हरएक कार्यको करते हुए भावना परिणामोंकी शुद्धि की हो, शुद्धोपयोगकी प्राप्ति हो, अन्य कोई सासारिक प्रयोजन जहां न हो। सम्यग्दृष्टी ज्ञानी जीवको यह निश्चय होगया है कि उसका आस्मा वास्तवमें शुद्ध है, मात्र कर्म-कलंकसे मलीन होरहा है। इस कर्म-मैलके धोनेका उपाय निश्चय रनत्रय ॐ धर्म ही यथार्थ है जहां शुद्धात्माका अडान, ज्ञान व चारित्र है-जिसको आत्मानुभव कहते हैं। इसीसे कौका मैल कटता है। श्री जिनेन्द्र भगवानकी कही हुई वे ही छ: क्रियाएं यथार्थ हैं जो शुद्धास्माकी तरफ लेजावें। जिन आगम परम पूज्य ऋषियोंके द्वारा निर्मापित है जिनका मूल श्रोत तीर्थकर भगवानका उपदेश है, उस जिनवाणी में जिन शुद्ध षट्कोंके पालनेकी आज्ञा है उन्हें ही हरएक अरावानको पालना चाहिये। उनमें यही अभिप्राय है कि रागदेष मोह जो बंधके कारण भाव हैं उनको दूर किया जावे और वीतराग विज्ञानमय शुद्ध आत्मीक भावको झलकाया जावे, * जहां रश्च मात्र भी सांसारिक सुखकी भावना न हो। ख्याति लाभ पूजादिकी चाह न हो वहीं शुरषद्कर्म है। पमनंदि मुनिने प्रावकाचारमें रत्नत्रयको मोक्षमार्ग कहकर शुरषद्कर्म बताएहैं सम्यग्टग्नोपचारित्रत्रितयं धर्म उच्यते । मुक्तः पंथा स एव स्यात्पमाणपरिनष्ठितः ॥६-१॥ देवपूना गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । वानश्चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥१-७॥ भावार्य-प्रमाण निश्चय किया गया सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही धर्म कहा गया है, यही
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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