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धरणवरण
श्रावसाचार
1३०८॥
अन्वयार्थ (येन हिंसा जीव विराधन) जिससे हिंसा हो, प्राणियोंका घात हो वह (अशुद्ध संयम) ॐ अशुद्ध संयम है (संयम शुद्ध न जानते ) अथवा जो शुद्ध आत्म-संयमको नहीं जानते (तत्संयम मिथ्या संजमं) वह संयम भी मिथ्या संयम है।
विशेषार्थ-जो संयमका नाम तो लें परन्तु असंयम पालें वह साक्षात् मिथ्या संयम है। जैसे जिन नियम प्रतोंसे इंद्रियोंका स्वाद अधिक पुष्ट हो व प्राणियोंकी अधिक हिंसा हो वह हिंसाकारक संयम अशुद्ध असंयम है, असंयम ही है। जैसे दिनको अन्न न खाकर रात्रिको स्वादिष्ट फलाहार मिठाई आदि खाना और अपनेको व्रती संयमी मानना। इससे असंयम ही हुआ क्योंकि रात्रिको खाना हिंसाकारक है, स्वादिष्ट भोजन जिह्वाकी लोलुपता पर्द्धक है। कोई यह नियम ले कि मैं अन्न न खाऊँगा, कंदमूल खाऊँगा । इसमें संयम अशुद्ध ही हुआ क्योंकि कंदमलके खाने में अधिक हिंसा हुई। अन्नमें उतनी न होती। जहां मन व इंद्रिय वशमें रहें वहीं संयम होसक्ता है। जहां इन्द्रियोंका पोषण हो वह अशुद्ध संयम ही है।
अथवा कोई जैन शास्त्रानुसार श्रावकका बाहरी संयम पाले, रात्रिको अन्न न खावे, कंदमल 5 न खावे, रस चलित न खावे, रस त्यागे, उपवास करे, नित्य १७ नियमका विचार करे, अनेक प्रका.
रकी प्रतिज्ञाएँ पालें । परन्तु निश्चय संयम जो आस्माकी सामायिक है उसको न पहचाने, मन व इंद्रियोंके अगोचर जो आत्माराम है उसके अनुभवमें लीन न हो, आत्मानन्द रसका पान न करें तो वह संयम भी मिथ्या संयम है। केवल कुछ पुण्यकर्म बंधका कारण है, मोक्षका मार्ग नहीं। अशुद्ध संयमसे श्रावकको बचना योग्य है।
श्लोक-अशुद्धं तप तप्तं च, तीव्र उपसर्ग सहं ।
शुद्धतत्वं न पश्यंते, मिथ्या माया तपं कृतं ॥ ३१६ ॥ अन्वयार्थ-(अशुद्धं तप तप्तं च) जो अशुषको तपते हैं (तीव उपसर्ग सह) व कठिन कठिन शरीरके कष्टोंको सहन करते हैं परन्तु (शुद्धतत्वं न पश्यते ) शुर आत्मतत्वका अनुभव नहीं करते हैं वे (मिथ्या माया तपं कुर्व) मिथ्यात्व व मायाचारमय तप करते हैं।
विपार्व-अशुद्ध तप वह है जहां शुद्ध तत्वका ज्ञान व अनुभव न हो किन्तु नानाप्रकार