________________
वारणतरण
॥ ४५ ॥
किंतु यदि संयम आचरण करते हुए सम्यग्दर्शन होगा तो वह संयम सम्यक् संगम होगा । इसी तरह १२ प्रकारका तप ध्यानादि तब हो अपने नामको रखते हैं जब उनके साथ सम्यग्दर्शन हो । प्रमाण नयका ज्ञान यदि मिथ्यादर्शन सहित है, आत्माकी यथार्थ श्रद्धा रहित है तो वह कुज्ञान या अशुद्ध ज्ञान है परंतु सम्यग्दर्शन के साथ वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। मिध्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि दोनों मतिश्रुतज्ञान से कदाचित्र पदार्थोंको एकसा जानते हैं तौभी मिथ्या अभिप्राय जो संसार की रोचकता उस सहित सर्व ज्ञान कुज्ञान है । परंतु सम्यक् अभिप्राय सहित सर्व ज्ञान सुज्ञान है । श्लोक -- षट्कर्म शुद्ध सम्यक्तं, सभ्यक्तं अर्थ शाश्वतं ।
सम्यकू शुद्धं ध्रुवं सार्द्ध, सम्यक्तं प्रति पूर्नितं ॥ ३८ ॥
अन्वयार्थ - ( शुद्ध ) शुद्ध भावनाके साथ ( षटकर्म ) मुनि या श्रावकके छः कर्म ( सम्यक्तं सार्द्धं ) सम्यग्दर्शन सहित ही होते है । (शाश्वतं ) अविनाशी ( अर्थ ) पदार्थ (सम्यक्तं सम्यग्दर्शन है । (सम्यक् ) सम्यक्त (शुद्ध) शुद्ध है (ध्रुवं) व ध्रुव है (सम्यक्तं ) यही सम्यक्त (प्रति पूर्नितं) संपूर्ण व यथार्थ सम्यक्त है । विशेषार्थहां बताया है कि निश्चय सम्यग्दर्शन आत्माका एक शुद्ध अविनाशी गुण है इस भावको लिये हुए ही सम्यग्दर्शन परिपूर्ण है । इस निश्चय सम्यक्तमें शुद्ध आत्माकी ओर लक्ष्य रहता है । इस लक्ष्य में ही शुद्ध भावना होती है । सम्पक्त रहित सर्व भावना अशुद्ध कहलाती है। जहां शुद्ध आत्मतत्वकी भावना है वहीं मुनि या श्रावक के नित्य छः कर्म यथार्थ कहे जाते हैं। उन कम करनेका फल मुनि या श्रावक किसी अशुद्ध लौकिक लाभको नहीं चाहता है । उसके यही भावना रहती है कि इनके द्वारा शुद्ध आत्मा में ध्यान चला जावे । मुनियोंके छः नित्यकर्म हैं । १-तिक्रमण-पिछले दोषों को दूर करनेकी सच्ची भावना, २- प्रत्याख्यान - आगामी दोषों से बचनेकी भावना, ३-संस्तुति- तीर्थंकरादिकी स्तुति करना, ४ - वन्दना- किसी एककी मुख्यता करके नमस्कार करना, ५- सामाधिक-समताभाव पानेको ध्यान करना, ६- कायोत्सर्ग - शरीरसे ममत्व त्यागना । श्रावकके छः कर्म हैं- देवपूजा, गुरुभक्ति, शास्त्र स्वाध्याय, तप या सामायिक, संयम, और दान । तात्पर्य यह है कि मुनि हो या आवक सबको अपने २ नित्य कर्म मात्र शुद्ध आत्माकी भावना हेतुसे ही करने चाहिये। तबही वे सम्यक हैं।
श्रावका
646446466464«««««
॥ ४५ ॥