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________________ मो.मा. प्रकाश कहना मिथ्या है । जातैं मानादि कषायरूप भावको राजस कहिए है, क्रोधादिकषायरूप भावकों तामस कहिए है, मन्दकषायरूप भावकौं सात्विक कहिए है । सो ए तौ भाव चेतनामई प्रत्यक्ष देखिए है । र मायाका स्वरूप जड़ कहो हौं, सो जड़तै ए भाव कैसें निपजैं । जो जड़कें भी हों तो पाषाणादिकके भी होंय । सो तो चेतनास्वरूप जीव तिनिहीकै ए भाव दीस हैं। तातै ए भाव मायातैं निपजे नाहीं । जो मायाकौं चेतन ठहरा वै तौ मानें। सो मायाकों चेतन ठहराए शरीरादिक मायातै भिन्न भिन्न निपजे कहैगा तौ न मानेंगे। तातैं निर्द्धार कर, भ्रमरूप मानें नफा कहा है । बहुरि वह है है तिनिगुणनितैं ब्रह्मा विष्णु महेश ए तीन देव प्रगट भए सो यह भी मिथ्या ही है । जातैं गुणी तैं तो गुण होय गुण गुणी कैसें निपजै । पुरुषतै तौ क्रोध होय क्रोध पुरुष कैसें निपजै । बहुरि इनि गुणनिकी तौ निन्दा करिए है । इनिकरि निपजे ब्रह्मादिक तिनिकों पूज्य कैसैं मानिए है । बहुरि · गुण तौं मायामय अर इनकों ब्रह्मके अवतार कहिए है सो एतौ मायाके अवतार भए इनको ब्रह्मके अवतार कैसें कहिए है । बहुरि ए गुण जिनमें थोरे भी पाइए तिनिकों लौ छुड़ाबनेका उपदेश दीजिए अर जो इनिहीकी मूर्ति तिनिकों पूज्य मानिए । यह तो बड़ा भ्रम है । बहुरि तिनिका कर्त्तव्य भी इनमयी भासे है । कुतूहलादिक वा युद्धादिक वा स्त्रीसेवनादिक कार्य करें हैं सो तिनि राजसादि गुणनिकर ही ए क्रिया १५३
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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