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.मा. प्रकाश
आपकों तहाँ कषायरहित मानें है, सो ऐसे आनन्दरूप भए तौ रौद्रध्यान हो है । जहाँ सुखसामग्री छोड़ि दुखसामग्रीका संयोग भए संक्लेश न होय, रागद्वेष न उपजे, तहां निःकषायभाव हो है । ऐसें भ्रमरूप तिनकी प्रवृत्ति पाईये हैं। या प्रकार जे जीव केवल निश्चयाभासके अवखम्बी हैं, ते मिथ्यादृष्टी जानने । जैसें वेदांती वा सांख्यमतवाले जीवकेवल शछात्माके श्रद्वानी हैं, तैसें ए भी जानने । जाते श्रद्धानकी समानताकरि उनका उपदेश इनको इष्ट लागे है. इनका उपदेश उनको इष्ट लागे है। बहुरि तिन जीवनिकै ऐसा श्रद्धान है जो केवल। शुद्धामाका चितवनते तो संवर निर्जरा हो है, वा मुक्तात्माका सुत्रका अंश तहां प्रगट हो है। पहुरि जीवके गुणस्थानादि अशुद्ध भावनिका वा भाप बिना अन्य जीव पुद्गलादिकका चितवन किए मानव बंध हो है । तातै अन्य विचारतें पराङ्मुख रहे हैं। सो यह भी सत्य ! श्रद्धान नाहीं । जाते शुद्ध स्वद्रव्यका चिंतश्न करो, वा अन्य चितवन करौ । जो वीतरागता || लिए भाव होय, तो तहां संवर निजरा ही है , और जहां रागादिरूप भाव होय, तहां आस्रव ।। बंध है । जो परद्रव्यके जाननेहति भास्रव बंध होय तो केवली तो समस्त परद्रव्यकों जाने हैं, तिनके भी मानव बंध होय । बहुरि वह कहे है-जो छद्मस्थकै परद्रव्य चितवन होते आस्रव बंध हो है । सो भी नाही, जाते शुक्रध्यानविर्षे भी मुनिनिकै छहों द्रव्यनिका द्रव्यगुणपर्याय- ३१८ निका चितवन होना निरूपण किया है वा अवधिमनःपर्यायादिवि परद्रव्यके जाननेकी विशे